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Chapter 3 Shloka 11
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।।११।।
Bhagwan tells Arjuna that Prajapati said:
Nourish the Devas through this yagya
and may those Gods nourish you.
Thus through mutual satiation,
both shall attain the highest good.
Chapter 3 Shloka 11
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।।११।।
Bhagwan tells Arjuna that Prajapati said:
Nourish the Devas through this yagya and may those Gods nourish you. Thus through mutual satiation, both shall attain the highest good.
The Supreme Lord through His own example has given the proof of yagya and has demonstrated that the essence of yagya is complete silence. He has thereafter enjoined mankind, ‘Nourish the devtas and the devtas shall sustain you. The wellbeing of both is ensured in this yagya.’
Who are the Devtas?
a) They who are possessed of the Divine Nature of Brahm and of His Supreme Prakriti.
b) They who have acquired the power of the threefold qualities from the five elements of nature.
c) The energy derived from the Supreme can be called ‘devta’.
d) The power of the Atma can be called ‘devta’.
e) The Supreme, Universal Lord of all – individualised, could be called ‘devta’.
f) Every faculty bestowed by the Lord can be called ‘devta’.
g) The power of the devta is galvanised through a life of yagya.
h) If the faculties of action perform yagya, the faculties of knowledge are also energised, because deeds fragrant with yagya purify the mind-stuff.
When one attains steadfastness in yagya, one will be established in Adhyatam – the nature of Brahm. As a result, such a one abides in bliss and his life is blessed.
How is this Yagya practised in life?
1. Yagya is giving.
2. An act which establishes the other is yagya.
3. Acting for the others’ benefit rather than one’s own is yagya.
4. Yagya is fulfilling the other’s desires.
5. Doing one’s duty in life is yagya.
6. Forfeiting one’s own attachments and desires is yagya.
7. Doing every action in a spirit of offering to the Lord is yagya.
8. To serve others with body, mind and intellect, renouncing one’s likes and dislikes, is yagya.
9. Forgiveness, mercy, compassion – the practice of these and other such qualities in one’s life is yagya.
10. Silence, in the face of negative onslaught on oneself, is yagya.
11. Perseverance in performing deeds for the others’ wellbeing is yagya.
Little one! The actions of an individual either nourish the devtas or the demon of ego within us. Those who perform yagya, nourish the divine, whilst those who live for selfish gain, strengthen the demoniacal tendencies. They who persistently work for the welfare of others, utilising the energies given for the purpose of yagya, strengthen the deities of yagya and receive the ‘prasaad’ called ‘yagyashesh’.
The Lord states that through mutual satiation, both shall attain the highest good. How is this possible?
If one understands the essence of yagyashesh, this fact is clarified.
Yagyashesh
1. By performing actions that are in the spirit of yagya, you will attain perfection in the performance of selfless deeds.
2. You will also become devoid of attachment.
3. You will be established in equanimity.
4. You will be freed of the ego and every vestige of selfishness.
Yagya is an imperative practice, employed by a sadhak of the highest calibre, to become an Atmavaan.
a) Yagyashesh is the Yoga of equanimity.
b) Yagyashesh is the Yoga of knowledge.
c) Yagyashesh is bliss itself.
d) Yagyashesh is detachment.
e) Yagyashesh is the absence of moha.
f) Yagyashesh is transcendence from duality.
Yagyashesh takes one to the level of godliness – for it is the gods who partake of this sanctified nutrient. When that spiritually elevated one becomes an Atmavaan, he ceases to partake even of the yagyashesh. He completely transcends attachment.
अध्याय ३
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।।११।।
अब भगवान प्रजापति की बात कहते हैं कि प्रजापति ने कहा :
शब्दार्थ :
१. इस यज्ञ से तुम देवता संतुष्ट करो,
२. देवता तुम्हें संतुष्ट करें,
३. परस्पर संतुष्ट होते हुए,
४. दोनों श्रेय को ही पायेंगे।
तत्व विस्तार :
जब ब्रह्म ने प्रमाण देकर समझा दिया कि यज्ञ क्या है और यह भी दर्शा दिया कि यज्ञ का स्वरूप महामौन है, फिर उन्होंने मानो जीव से कहा :
‘देवताओं को तुम तुष्टित करो, देवता तुम्हें तुष्टित करेंगे। दोनों का इसी में वर्धन हो।’
देवता कौन?
क) परम स्वभाव, परम प्रकृति, पञ्च तत्व से जो त्रिगुणात्मिका शक्ति पाये हो, वही देवता है।
ख) देव से मिली शक्ति को देवता कह लो।
ग) आत्मा में जो शक्ति है, उसको देवता जान लो।
घ) परमात्म व्यक्तिगत सा हुआ, वही आत्म शक्ति देवता है।
ङ) हर शक्ति जो परम राही मिली है, उस देव शक्ति को देवता कह लो।
च) गर यज्ञ पूर्ण जीवन हो तब ही यह शक्ति तुष्टित होती है।
छ) कर्मेन्द्रियाँ यज्ञ करें तब ज्ञानेन्द्रियाँ पुष्टित होती हैं; क्योंकि, यज्ञमय कर्म करने से चित्त शुद्ध होता है।
ज) इसमें निरन्तरता आये, तब ही हम अध्यात्म में स्थित हो सकते हैं।
झ) परिणाम में आनन्द मिलता है और जीवन कल्याणपूर्ण होता है।
यह सब कैसे हो, जीवन में यह यज्ञ क्या होता है, प्रथम इसे समझ लो!
यज्ञ :
1. देने का नाम यज्ञ है।
2. दूजे की स्थापति अर्थ काज करना ही यज्ञ है।
3. स्व अर्थ काज करना छोड़ कर अन्य पुरुष अर्थ काज करना यज्ञ है।
4. दूसरे की चाहना पूर्ण करना यज्ञ है।
5. जीवन में कर्तव्य पालन करना यज्ञ है।
6. अपनी चाह और संग की आहुति देना यज्ञ है।
7. परम परायण होकर ही हर काज कर्म करना यज्ञ है।
8. सबके लिये सब कुछ करना ही यज्ञ है।
9. अपना तन दूसरों को दे देना ही यज्ञ है।
10. अपनी बुद्धि दूसरे के चरण धरो, यही यज्ञ है।
11. निज रुचि अरुचि को भूल कर दूजे को स्थापित करना ही यज्ञ है।
12. क्षमा, दया, करुणा इत्यादि दैवी गुणों का जीवन में प्रयोग करना ही यज्ञ है।
13. कोई तुम्हारे साथ जैसा भी व्यवहार करे, तुम मौन रहो, यही यज्ञ है।
14. दूसरों का सदा भला करते जाओ, यही यज्ञ है।
नन्हीं! जीव के कर्म या तो देवत्व को पुष्टित करते हैं या अहंकार रूप असुरत्व को पुष्टित करते हैं। जो यज्ञ करते हैं, वह देवत्व को पुष्टित करते हैं; जो स्वार्थ के लिये जीते हैं, वे असुरत्व को पुष्टित करते हैं। जिसे अपने लिये सब कुछ चाहिये, वह आसुरी गुण पुष्टित करता है। जो दूजे का भला करते जायें और यज्ञ करने की शक्ति को इस्तेमाल करें, उनसे वह यज्ञ रूप देवता पुष्टित होते हैं, यज्ञ शेष ही तो इसका प्रसाद है।
कल्याण दोनों का इसमें हो जाता है। अब समझ यह कैसे होता है।
यज्ञ शेष :
यज्ञ का परिणाम समझ लो तो यह भी समझ आ जायेगा।
1. यज्ञ कर्म से तू परम परायण यज्ञवान् हो जायेगी।
2. नैष्कर्म सिद्धि को पायेगी।
3. आसक्ति रहित तब हो जायेगी।
4. संग रहित स्वत: ही हो जायेगी।
5. समत्व भाव में स्थित हो जायेगी।
6. तुम्हारा ममत्व भाव भी मिट जायेगा।
यज्ञ ही अभ्यास है आत्मवान् बनने का। यज्ञ ही अभ्यास है सर्वोत्तम साधक का।
1. यज्ञ शेष समत्व योग है।
2. यज्ञ शेष ज्ञान योग है।
3. यज्ञ शेष आनन्द रूप है।
4. यज्ञ शेष निसंगता रूप है।
5. यज्ञ शेष निर्मोह की स्थिति है।
6. यज्ञ शेष निर्द्वन्द्व की स्थिति है।
यज्ञ देवत्व गुण का अभ्यास है, यज्ञ शेष की राह से आप देवता हो जाते हैं। देवता यज्ञ शेष खाते हैं। फिर, जब आत्मवान् बन जाते हैं तब वे यज्ञ शेष भी नहीं खाते। वे पूर्ण अनासक्त हो जाते हैं।