अध्याय ३
यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर।।९।।
अब भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. यज्ञ अर्थ किये हुए कर्मों के सिवाय,
२. अन्य सम्पूर्ण कर्म इस लोक में कर्म बन्धन हैं, इसलिये,
३. हे अर्जुन! आसक्ति से रहित हुआ,
४. तप अर्थ तथा यज्ञ अर्थ,
५. भली प्रकार से कर्म कर।
तत्व विस्तार :
यज्ञ अर्थ कर्म क्या है :
1. पावनता के लिये जो कर्म किये जायें।
2. परम परायण होकर जो कर्म भागवद् अर्थ किये जायें।
3. भक्ति सम्बन्धी काज, जो भगवान के साक्षित्व में किये जायें।
4. परम परायण जीव के कर्म।
5. जीवन में संग, चाह, मम, मोह से मुक्त करने वाले कर्म।
6. जीवन में दैवी सम्पद् बहाने वाले कर्म।
7. दूजे के लिये जीवन दान देने का कर्म।
8. जीवन में राम के गुणों का अभ्यास।
9. अहंकार की आहुति देने वाले कर्म।
10. सीस झुकाने तथा पल पल मिटते जाने का अभ्यास।
अपने को भूल जाना यज्ञ ही है; भागवत् निमित्त कार्य करना यज्ञ ही है। अन्य सम्पूर्ण कर्म तो कर्म बन्धन ही होते हैं।
क) अहं स्थापना अर्थ जो भी करो, वह कर्म बन्धन ही होते हैं।
ख) मोह तृष्णा द्वारा प्रेरित जो कर्म हों, वे बन्धन कारक ही होते हैं।
ग) चाहना और संग बधित कर्म, बन्धन कारक ही होते हैं।
घ) राग द्वेष से प्रभावित कर्म, बन्धन कारक ही होते हैं।
ङ) निहित प्रवृत्ति, संग रूप कर्म, बन्धन कारक ही होते हैं।
च) आसक्ति पूर्ण जो भी कर्म हों, वे बन्धन कारक होते हैं।
छ) तनो संगी का हर कर्म बन्धन कारक ही होता है।
इसलिये भगवान कहते हैं : हे साधक! हे अर्जुन! आसक्ति छोड़ो और परम के निमित्त कर्म करो। परम स्थापति जीवन में हो, बस यही चाहना मन में धर कर तुम धर्ममय आचरण करो। केवल आत्मवान् बनने के लिये कर्म करो। बाकी सब कर्म बन्धन कारक हैं।