Chapter 3 Shloka 7

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते।।७।।

Now the Lord describes the Karma Yogi who has transcended action:

But, O Arjuna! He who, having controlled

his sense organs through his mind,

devoid of attachment, pursues Karma Yoga

through his organs of action, he is superior.

Chapter 3 Shloka 7

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते।।७।।

Now the Lord describes the Karma Yogi who has transcended action:

But, O Arjuna! He who, having controlled his sense organs through his mind, devoid of attachment, pursues Karma Yoga through his organs of action, he is superior.

Little one, the Lord specifies that he who abides in Karma Yoga through his organs of action is indeed great. However, it is essential that his action is performed in a spirit of detachment with sense organs under complete control of the mind. How can this be made possible?

1. When the intellect rules over the mind, then the sense organs also come under its control.

2. The sense organs will no longer tempt the mind into associating with sense objects to enjoy the attractions offered by them.

3. The sense organs will obey the intellect.

Now it remains to be seen, what the aim of the intellect is.

a) The intellect is seeking yoga or union with the Atma.

b) It is trying to eliminate identification and attachment with the body and striving to renounce the thought ‘I am the body.’

c) It wants to guide the body towards the performance of only those deeds which are conducive to yoga.

1. The sense organs which are subservient to such an intellect, will no longer be attracted to objects.

2. The mind will follow suit.

3. Since such a one is endeavouring to offer his body in the service of others, he wants nothing for himself. All his actions will be selfless.

4. He has no desire for establishment of the body, or his reputation; he wants to forgo body ownership.

5. He only seeks union or yoga with the Atma. His sense organs involve themselves in those deeds which will further this end.

­­–  His effort towards the renunciation of the body idea is also inherent in this endeavour.

­­–  The essence of his sadhana and proof of his selfless state, both lie in this attitude.

­­–  Soon divine qualities flow from him as a natural outcome of his selfless deeds.

Experiencing within himself this flow of divine qualities, his life becomes a constant yagya, and his intellect becomes stable. Consequently, a day comes when he forgets his body self and becomes an Atmavaan.

अध्याय

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते।।७।।

अब भगवान निष्काम कर्मयोगी के विषय में बताते हैं और कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. परन्तु हे अर्जुन! जो मन से इन्द्रियों को वश में करके,

२. आसक्ति रहित हुआ,

३. कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है,

४. वह श्रेष्ठ है।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! अब भगवान कहते हैं कि कर्मेन्द्रियों से जो कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है। किन्तु, उसका कर्म, मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त भाव से होना चाहिये।

पहले समझ कि ‘मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त भाव’ का क्या अर्थ है? नन्हीं!

1. जब मन पर भी बुद्धि का राज्य होगा, तब इन्द्रियों पर भी बुद्धि का अधिकार होगा।

2. तब इन्द्रियाँ बुद्धि के वश में होंगी।

3. तब इन्द्रियाँ उपभोग के लिये मन को साथ लेकर विषयों में नहीं जायेंगी।

अब देखना यह है कि बुद्धि क्या चाह रही है?

क) बुद्धि आत्मा से योग के यत्न कर रही है?

ख) बुद्धि तनत्व भाव को त्यागने का यत्न कर रही है?

ग) वह अपने तन से नाता तथा संग तोड़ने के यत्न कर रही है? उसे तो अपने तन से वही कर्म करवाने हैं, जिनसे उनका योग सफल हो जाये।

1. ऐसी बुद्धि के अधीन हुए इन्द्रियाँ, विषय आसक्ति रहित ही होती है।

2. ऐसी बुद्धि के अधीन हुआ मन, विषयासक्ति रहित ही होता है।

3. क्योंकि ऐसा जीव अपना तन दुनिया को देने चला है, उसे अपने लिये सुख नहीं चाहिये, इसलिये उसके सम्पूर्ण कर्म निष्काम ही होंगे।

4. वह तो तनत्व भाव अभाव का अभ्यास कर रहा है।

5. वह तो आत्मा से योग करने का अभ्यास कर रहा है।

6. वह तो आत्मा से योग करने के लिये तन से नाता तोड़ने का अभ्यास कर रहा है। उसे अपने तन की स्थापति, मान तथा संरक्षण के लिये कुछ नहीं करना होता। वह तो अपने तन से अपनापन भुलाना चाहता है। ऐसे की कर्मेन्द्रियाँ योग अर्थ ही कर्म करती हैं।

क) उसका तनत्व भाव अभाव का अभ्यास भी इसी में निहित है।

ख) उसकी साधना का सार भी तो इसी में निहित है।

ग) ऐसे की स्थिति के दर्शन भी इन्हीं कर्मों से हो सकते हैं।

घ) ऐसे निष्काम कर्म योगी का प्रमाण भी इन्हीं कर्मों में निहित होता है।

ङ) ऐसे निष्काम कर्म करने के पश्चात् ही उसमें विभिन्न सत् पूर्ण दैवी गुण उत्पन्न होते हैं।

च) जब दैवी गुण आपके आन्तर में बहने लगते हैं, तब आपको उन गुणों का अनुभव होता है।

शनै: शनै: जीवन यज्ञमय हो जाता है और आपकी बुद्धि स्थिर होने लगती है, फिर आप एक दिन अपने आपको भूल ही जाते हैं, या यूँ कहो, तन से तद्रूपता छोड़ कर, आत्मवान् बन जाते हैं।

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