अध्याय ४
श्री भगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।
अर्जुन के पूछने पर भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत जन्म हो चुके हैं,
२. परन्तु उन सबको तू नहीं जानता
३. और मैं जानता हूँ।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! अर्जुन को संदेह हो रहा था भगवान पर, कि वह पुरातन काल में विवस्वान् को ज्ञान कैसे दे सकते थे?
भगवान के मृत्यु धर्मा तन को सामने देख कर भगवान के अक्षर तत्व को समझना अर्जुन के लिये कठिन हो रहा था। उसके संशय को दूर करने के लिये भगवान कहने लगे कि :
1. वह अपने पूर्व जन्मों के बारे में सब कुछ जानते हैं।
2. अर्जुन के भी पहले बहुत से जन्म हुए हैं और भगवान उनसे परिचित हैं।
3. उनके अपने भी पहले बहुत से जन्म हो चुके हैं, यह भी वह जानते हैं।
नन्हीं! इसका राज़ तनो बधित जीव नहीं समझ सकता। इसका राज़ शुद्ध तथा निर्मल आत्मा ही समझ सकता है। इसका राज़ आत्मवान् या भगवान स्वयं ही जान सकते हैं।
वास्तव में भगवान ने जन्म कहाँ लिया? वह तो स्वयं नित्य निराकार हैं। वास्तव में भगवान नित्य अव्यय, अक्षर तत्व, स्वयं है।
किन्तु नन्हीं! यह राज़ देहात्म बुद्धि के अभाव के पश्चात् ही ज्ञात हो सकता है।
नन्हीं! आत्मा न जन्मता है और न मरता है। तन ही अनेकों बार जन्मते हैं और मरते हैं। जो तन से संग करता है, उसके संग से सप्राण किये हुए बीज, बार बार जन्मते और मरते हैं।
भगवान जानते हैं कि जीव को ब्रह्म का अध्यात्म रूप स्वभाव समझाने के लिये परम तत्व बार बार धरती पर रूप धरते हैं। यह रूप आत्म तत्व के दृष्टिकोण से कोई अर्थ नहीं रखते।