अध्याय ३
न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:।।५।।
अब भगवान स्वयं बताते हैं कि कर्म त्याग से सिद्धि क्यों नहीं मिलती। वह कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. क्योंकि कोई भी जीव किसी काल में, क्षण मात्र भी,
२. बिना कर्म किये नहीं रहता,
३. निस्सन्देह, सब ही प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करते हैं।
तत्व विस्तार :
भगवान कहते हैं कि एक क्षण भी तो ऐसा नहीं होता जब प्राणी कर्म न करता हो! वह तो हर पल कुछ न कुछ करता ही रहता है।
भगवान ने कहा :
क) प्रकृति ने ही जीव में गुण भर दिये हैं, उनके कारण वह विवश ही कर्म करता रहता है।
ख) जीव लाख रोके अपने आपको, फिर भी वह कर्म तो करेगा ही।
नन्हीं! अपने आपको रोकना भी तो कर्म है। ध्यान लगाना भी तो कर्म है। पठन और मनन भी तो कर्म है। अपनी दिनचर्या के लिये कुछ करना भी तो कर्म है। अपनी तनोव्यवस्था करना भी तो कर्म है।
साधक! मिथ्या त्याग की बातें करना मूर्खता है। संन्यास का अर्थ भी कर्म त्याग नहीं होता।
1. सब त्याग कर जाना आसान है, नित्य सीस झुकाना मुश्किल है।
2. जग दु:खी बनाना आसान है, जग सुखी बनाना मुश्किल है।
3. कर्तव्य छोड़ देना आसान है, कर्तव्य निभाना मुश्किल है।
4. ज्ञान का पाना आसान है, उसकी प्रतिमा बन जाना मुश्किल है।
5. तनो त्याग की बातें करना आसान है, तन दूजे को दे देना मुश्किल है।
6. योग की बातें सुन्दर हैं, परन्तु अपना अस्तित्व मिटाना मुश्किल है।
7. अहं मिटाव का ज्ञान आसान है, पल पल मिट जाना मुश्किल है।
8. नन्हीं! सब छोड़ कर भाग जाना आसान है, सबका बन जाना मुश्किल है।
9. जो बातें यहाँ मुश्किल कहीं, वही योग का परिणाम हैं और वही योग का प्रमाण हैं।
संन्यास केवल बातों की बात नहीं होता, संन्यासी के गुणों का जीवन में प्रमाण चाहिये। उसे गुणातीत होना है, तत्पश्चात् उसमें से दैवी गुणों का प्रादुर्य होगा। उन दोनों में जब परिपक्वता आ जायेगी, तब कहीं स्थितप्रज्ञता आ सकेगी; तब कहीं आत्मवान् बन सकोगे। इस सबको पाने के लिये आपको कर्म तो करने ही पड़ेगे और जैसे भगवान ने कहा है ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ यह कर्म कुशलता आप में आ ही जायेगी।