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Chapter 3 Shloka 4
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।
The Lord says, O Arjuna!
A person does not transcend action
through inaction;
nor can he attain Supreme realisation
through renunciation.
Chapter 3 Shloka 4
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।
The Lord says, O Arjuna!
A person does not transcend action through inaction; nor can he attain Supreme realisation through renunciation.
The Lord specifies here, that by abandoning action:
1. One does not transcend action.
2. One cannot attain the attributes of a realised One.
3. One cannot circumvent the body idea, nor doership.
4. One cannot transcend attachment.
5. One cannot expunge desire, ego or the ideas of ‘I’ and ‘mine’.
On the other hand, the Lord says, nor can one achieve perfection through the renunciation of action.
1. Even by abandoning all, one cannot attain one’s cherished goal.
2. Forsaking the world as well as one’s near and dear ones cannot lead one to the Supreme goal.
3. Merely the pursuit of study, meditation and rumination in knowledge cannot be the means for attainment of one’s spiritual objective.
4. Repetition of the phrase ‘I am not the body’ does not ensure transcending bodily attachment. Similarly if I repeat ‘I am an Atmavaan’, it does not make me one.
The Lord is stating that sanyas and action must be combined. He explains that these two paths are not contradictory but complimentary to each other. The union of these two leads to the attainment of one’s spiritual goal.
Little one, understand what the Lord has enjoined:
1. Give up attachment;
2. Give up all desire for the fruit of action;
3. Renounce the idea ‘I am the body’;
4. Give up your demands on others;
5. Become egoless;
6. Cease to dwell upon sense objects – renounce all attachment with them.
If one has to relinquish one’s sense of doership, how can one achieve this by forsaking the world? Attachment to one’s body is to be given up. So why not give your body in the service of others?
1. When your body acts for the other’s benefit without any motive, you will be established in selfless action or nishkam karma.
2. As your indifference to your body increases, you will be established in sanyas.
3. When the wisdom of your discerning intellect inspires you to renounce the body idea, you will cease to claim any actions performed by the body.
4. Even though your body will continue to perform actions, your intellect will remain vigilant in its efforts to practice the renunciation of doership.
5. No matter what the situation, your body will perform the requisite actions. Yet, supported by knowledge and your powers of discrimination, you will learn to remain unaffected by every circumstance.
6. You will interact with people of varied traits and natures but you will not be influenced by their qualities, since you are putting into practice the idea ‘I am not the body’.
7. This is also the practice of being a gunatit. When your body is not your own, how does it matter what the world demands from it? Then, even if it delegates the most insignificant job to you, disregarding your status, you will be able to meet the requirements, without any thought of your own capabilities or whether the job is big or small and whether you will receive praise or criticism for your effort. Then your attachment to your gunas will fade, and you will be unaffected by these dualities.
This practice too, involves action. The Lord Himself has specified here that one who renounces the world and all its relationships, cannot achieve perfection.
Little one! It may sound strange to you, yet:
1. It is only action which can help you to transcend action!
2. If you keep giving to others those objects which you want for your own gratification, you will one day achieve satiation.
3. Happiness is achieved through giving – not by taking.
4. If you have no rights over others and no one belongs to you, you will abide in bliss.
5. Those who are eternally free, are servants of all.
6. Virtue is nurtured and proved in the midst of vice. If one avoids those without virtue, one will only nurture egoistic pride.
7. The Lord Himself leads a most ordinary existence whenever He descends upon this earth. He is ordinarily not even recognised by those around Him.
8. Even the worst of men can become a sadhu – a paragon of virtue. It is not merely by engaging the body in action that you will be able to transcend the body: use your body in the service of others and it will become meaningless for you.
9. If you want to become an Atmavaan, you will have to fight your negativity.
10. Your freedom lies in giving freedom to all. It is from oneself that one must be free – not from the other.
11. Forgetfulness of the self leads to establishment in the Self.
12. When you give your body in the service of others, your requirements of the body will gradually diminish and eventually cease.
अध्याय ३
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।
भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन !
शब्दार्थ :
१. मनुष्य न तो कर्मों को न करने से निष्कर्मता को प्राप्त होता है,
२. और न ही सब कुछ छोड़ देने से परम सिद्धि को पाता है।
तत्व विस्तार :
यहाँ भगवान कर्मों के बारे में स्पष्ट कह रहे हैं कि :
1. कर्म न करने से निष्कर्मता नहीं आती।
2. कर्मों को छोड़ देने से आत्मवान् के गुण नहीं आ सकते।
3. कर्मों को छोड़ देने से जीव तनत्व भाव तथा कर्तृत्व भाव से नहीं उठ सकता।
4. कर्मों को छोड़ देने से कर्म से संग का त्याग नहीं होता।
5. कर्मों को छोड़ देने से कामना का त्याग नहीं होता।
6. कर्मों को छोड़ देने से जीव निर्मम नहीं बन सकता।
7. कर्मों को छोड़ देने से जीव निरहंकार नहीं हो सकता।
दूसरी ओर भगवान कहते हैं – संन्यास ले लेने से भी सिद्धि नहीं हो पाती।
क) यानि सब कुछ छोड़ने से सिद्धि नहीं होती।
ख) जग को छोड़ देने से सिद्धि नहीं होती।
ग) नाते बन्धुओं को छोड़ देने से सिद्धि नहीं होती।
घ) केवल सत् ज्ञान के पठन, चिन्तन और ज्ञान में रमण से सिद्धि नहीं होती।
ङ) केवल यह कहने से कि ‘मैं आत्मवान् हूँ’ जीव आत्मवान् नहीं बन जाता।
च) केवल यह कह देने से कि ‘मैं तन नहीं हूँ’ जीव तनत्व भाव से उठ नहीं जाता।
यह कह कर भगवान कहते हैं कि संन्यास और कर्मों का समन्वय अनिवार्य है। संन्यास और कर्म विरोधात्मक नहीं है; बल्कि संन्यास और कर्म के मिलन से सिद्धि होती है।
नन्हीं, इसे यूँ समझ! भगवान ने पहले कहा कि :
1. तू संग करना छोड़ दे।
2. तू कर्मों के फल की चाहना छोड़ दे।
3. तू तनत्व भाव छोड़ दे।
4. तू औरों पर से अपना अधिकार, यानि ममत्व भाव छोड़ दे।
5. तू अपना अहंकार छोड़ दे।
6. तू विषयों का चिन्तन छोड़ दे, विषयों से संग छोड़ दे।
यदि तुझे तनत्व भाव त्याग का अभ्यास करना है तो पूर्ण जग को छोड़ देने से क्या होगा? तुमने तो अपना तन छोड़ना है। तुम वह तन जग को क्यों नहीं दे देते?
क) जब आपका तन, बिना किसी प्रयोजन के लोगों के काम करने लगेगा, तब आप स्वत: निष्काम भाव में स्थिति पा लेंगे।
ख) अपने तन के प्रति आप ज्यों ज्यों उदासीन होने लगेंगे, उसके अनुरूप ही आपकी संन्यास में स्थिति होती जायेगी।
ग) जब विवेक रूपा ज्ञान ने तनत्व भाव के त्याग को आपका लक्ष्य बना ही दिया, तो आप तन के कर्म भी अपनाने बन्द कर दोगे।
घ) तन कर्म तो करता जायेगा, किन्तु साथ ही साथ आप बुद्धि स्तर पर कर्तृत्व भाव अभाव का अभ्यास भी करते जायेंगे।
ङ) जैसी भी परिस्थिति आये, तदनुकूल तन तो कर्म करता जायेगा और आप अपने ज्ञान तथा विवेक के आसरे परिस्थिति से अप्रभावित रहना सीख लेंगे।
च) विभिन्न गुणों वाले लोगों को तो आप नित्य मिलेंगे, किन्तु यदि आप सच ही अपने आपको तन न मानने का अभ्यास कर रहे होंगे तो आप उनके गुणों से अप्रभावित रहेंगे।
छ) गुणातीतता का अभ्यास भी यह ही है। यदि कोई आपकी स्थिति की परवाह नहीं करेगा और आपको तुच्छ से काम में लगा देगा, तब, यदि आप अपने आपको तन न समझते हुए, अपने गुणों का गुमान न रखते हुए, छोटे बड़े सभी काज करोगे, तो आप द्वन्द्वों से भी उठ सकोगे। तब आप अपने गुणों से भी संग छोड़ सकोगे।
यानि, जब तन ही आपका नहीं :
1. तो जग आपके तन से क्या करवाता है, आपको क्या?
2. तो तन के गुणों पर इतराना क्या?
3. तो इससे कोई छोटा काम करवाये या बड़ा काम करवाये, इससे आपको क्या?
4. तो आपके गुण जो भी हों, उन्हें ज़माना सराहे या ठुकराये, आपको क्या?
इसका अभ्यास भी तो जीवन में होना है। भगवान ने यहाँ स्पष्ट कहा है कि कर्म त्याग देने से निष्कर्मता नहीं आती और संन्यास लेने से सिद्धि नहीं मिलती।
मेरी नन्हीं जान्! इसका राज़ तथा समन्वय सिद्धि तुम समझ ही गई होगी।
नन्हीं! यह तुम्हें अजीब तो लगेगा, पर फिर से समझने के प्रयत्न करो, कि :
1. कर्म ही तुम्हें कर्मों से उठा सकते हैं।
2. जिस विषय से तृप्त होना चाहते हो, वह शनै: शनै: दूसरों को दो तो तृप्त हो सकते हो।
3. सुख देने से मिलता है, लेने से नहीं।
4. जब आपका किसी पर अधिकार न रहे और कोई अपना न रहे, तो आप नित्य आनन्द को पाते हैं।
5. नित्य मुक्त सबके नौकर होते हैं, वरना वह नित्य मुक्त नहीं।
6. असाधुता में ही साधुता पलती है, असाधुओं से दूर रह कर गुमान रूप अहंकार बढ़ता है।
7. भगवान् जीवन में अति साधारण होते हैं। उन्हें उनके जीवन काल में पहचानना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव होता है।
8. अतीव दुराचारी भी साधु हो सकता है। यह ज़रूरी नहीं कि तन को इस्तेमाल करने से तन से उठ जाता है; तन दूसरों के लिये इस्तेमाल करो, तो वह आपके लिये निष्प्रयोजन हो जाता है।
9. आत्मवान् बनना है, तो आपको युद्ध करना ही पड़ेगा।
10. सबको आज़ाद कर देने में ही आज़ादी है।
11. आज़ादी अपने आप से पानी होती है, दूसरे से नहीं।
12. अपनी विस्मृति ही आत्म स्थिति है।
13. जब आप अपना तन जग को दे दोगे तो आपके तन से आपका निजी प्रयोजन शनै: शनै: ख़त्म होने लगेगा।