अध्याय ४
स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुरातन:।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।३।।
अर्जुन! क्योंकि :
शब्दार्थ :
१. तू मेरा भक्त है और तू मेरा सखा है,
२. इसलिये, इस उत्तम और रहस्यपूर्ण पुरातन योग का अब मैंने तेरे लिये वर्णन किया।
तत्व विस्तार :
भगवान कहने लगे अर्जुन से :
1. तू मेरा भक्त है, तू मेरा सखा है।
2. तू मुझ को ही प्यार करता है।
3. तू मुझ से ही वफ़ा करता है।
4. तू मुझे ही पूजता है।
5. तू मेरा कहा ही करना चाहता है।
6. तू मेरे परायण है।
7. तू मेरे शरणापन्न है।
8. जो मैं कहता हूँ, तू यथा सामर्थ उसे समझने का यत्न करता है।
9. मेरे कथन को तू यथा शक्ति जीवन में लाना चाहता है।
10. तू मुझे पथ प्रदर्शित करने को कहता है, इसलिये मैंने यह परम गुह्य तथा रहस्यपूर्ण ज्ञान तुझ से कहा।
यह ज्ञान लुप्त हो गया है संसार से
क) क्योंकि श्रेष्ठ लोग तथा साधुगण, ज्ञान की बातें करते हैं परन्तु कर्मों को त्यागना चाहते हैं।
ख) वे मेरा भजन तो करते हैं, पर मुझ जैसा बनना नहीं चाहते।
ग) दूसरों को अपना आप देने के पश्चात् ही ज्ञान विज्ञान बनता है, यह वे समझना नहीं चाहते। वे दूसरों के लिये जीना नहीं चाहते।
घ) परम ज्ञान का दिनचर्या में रूप अतीव साधारण व्यक्ति जैसा होता है, यह तत्व साधुगणों को भला नहीं लगता। वे साधारण रूप धर कर औरों की सेवा नहीं करना चाहते।
ङ) भगवान मानो कह रहे हैं, ‘कर्तव्य निभाना कठिन लगता है, तो वे मेरी ही बातों को ग़लत अर्थ देकर, मेरे ही नाम का दुरुपयोग करके, कर्तव्य से पलायन कर जाते हैं।’
च) वे कामना का त्याग नहीं कर सकते, केवल कामना का रूप बदल देते हैं।
छ) सत् और प्रकाश से ही उन्हें संग हो जाता है।
ज) व्यावहारिक स्तर पर यज्ञपूर्ण जीवन मन को अतीव दु:ख देने वाला बन जाता है, इस कारण उसे छोड़ देते हैं।
झ) लोग आत्मवान् की बातें करते हैं, लेकिन आत्मवान् के दृष्टिकोण से जीवन में रहने का अभ्यास नहीं करते।
ञ) वे आत्मवान् की भान्ति अपने तन से दूर होने का यत्न नहीं करते; यानि, देह से निरासक्त होने का अभ्यास नहीं करते।
परन्तु, भगवान अर्जुन से कहते हैं, ‘मैं तुम्हारे लिये यह ज्ञान कहता हूँ, क्योंकि तू मेरा अतीव प्रिय सखा है; इस कारण इस रहस्य को तेरे सम्मुख खोल रहा हूँ।’