Chapter 3 Shloka 3

श्री भगवानुवाच

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

Lord Krishna replied:

O sinless Arjuna! I have previously defined

the two convictions that are prevalent in the world –

faith in Saankhya, through the route of knowledge,

and in Yoga, through the route of action.

Chapter 3 Shloka 3

श्री भगवानुवाच

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

Lord Krishna replied:

O sinless Arjuna! I have previously defined the two convictions that are prevalent in the world – faith in Saankhya, through the route of knowledge, and in Yoga, through the route of action.

Little aspirant Abha!

1. Believers of Saankhya have faith in gyan or knowledge.

2. They endeavour to know their essential being through meditation on Truth.

3. They believe that they can reach the Supreme spiritual goal through knowledge of the Truth.

4. Their faith lies in their goal which they strive to attain through listening about it, meditating on it, and studying it.

5. They seek to realise God and become an Atmavaan through the accumulation of knowledge.

6. They wish to transcend the ego.

7. They seek to subjugate the idea of doership and enjoyership.

8. They wish to transcend the body and the objective world.

9. They seek to restrain the organs of the senses.

They believe that all this is possible through intellectual comprehension. They advocate forsaking of action and are attached to theoretical knowledge.

a) Other Yogis also, seeking the Supreme, engage in action for the achievement of their goal.

b) Their destination is the same as the Saankhya yogis – but their faith lies in action. However, when they become attached to action, they are waylaid in the attainment of their goal.

Little one,

a) The amalgamation of knowledge and action is imperative.

b) The practice and proof of knowledge lies in action.

c) The secret of action on the other hand, lies hidden in knowledge.

d) The path whereby knowledge flows into life is actions.

Therefore the two must unite. Lord Krishna is about to reveal the method towards the fusion of knowledge and action.

Nishtha (निष्ठा)

Nishtha is establishment in that object which holds the deep confidence and attachment of the mind.

Nishtha means firmness.

Nishtha is that point in infinity, to attain which the individual is prepared even to give up his life. The individual endeavours with full devotion and faith to achieve that in which he has nishtha.

Nishtha can mean confidence, abiding attachment, devotion, faith.

Little one, if knowledge is the essential core, then action or karma is its manifest form. If knowledge can be likened to Brahm, action can be described as Prakriti – Brahm’s integral component. Knowledge is silence and action its manifestation. Knowledge is consciousness and action its proof. Knowledge is a state and action its form. Thus, both knowledge and action are inseparable.

अध्याय

श्री भगवानुवाच

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

शब्दार्थ :

१. हे निष्पाप अर्जुन!

२. इस जहान में दो प्रकार की निष्ठा पहले मेरे द्वारा कही गई है।

३. सांख्य वालों की ज्ञान योग में

४. और योगियों की कर्मयोग में।

तत्व विस्तार :

नन्हीं साधिका आभा!

1. सांख्य वाले ज्ञान में निष्ठा रखते हैं।

2. वे तत्व चिन्तन करके स्वरूप को समझना चाहते हैं।

3. तत्ववेता बन कर समझते हैं कि वे ब्राह्मी स्थिति पा लेंगे।

4. उनकी निष्ठा लक्ष्य में होती है। वे श्रवण, पठन, चिन्तन इत्यादि को लक्ष्य पाने की विधि समझते हैं।

5. वे तत्व पाना चाहते हैं, यानि आत्मवान् बनना चाहते हैं।

6. उस तत्व पर वे ध्यान लगाना चाहते हैं।

7. ज्ञान में रमण करके वे भगवान को पाना चाहते हैं।

8. वे अहं मिटाना चाहते हैं।

9. वे कर्तृत्व भाव तथा भोक्तृत्व भाव मिटाना चाहते हैं।

10. वे तन से तथा विषयों से ऊपर उठना चाहते हैं।

11. वे इन्द्रियों को रोकना चाहते हैं।

12. वे आत्मवान् बनना चाहते हैं।

वे केवल मानसिक समझ से परम को पाना चाहते हैं। ऐसी निष्ठा वाले कर्म त्याग को श्रेष्ठ मानते हैं और शब्द ज्ञान में निष्ठा रखते हैं। इन्हें ज्ञान से संग हो जाता है, मानो वे ज्ञान में ही बह जाते हैं।

क) दूजे योगी गण भी परम को चाहते हैं, परन्तु कर्म में निष्ठा रखते हैं।

ख) वे कर्म पथ अपनाते हैं और कर्मों की राह से ब्राह्मी स्थिति को पाना चाहते हैं, परन्तु कर्म में निष्ठा रखते हैं।

ग) अन्त में जानो ये भी तो वही पाना चाहते हैं, जो सांख्य वाले चाहते हैं।

घ) ये कर्मों को श्रेष्ठ मान कर जीवन में कर्म करते हैं।

ङ) परन्तु जब कर्मों में संग हो जाता है तो यह राहों में ही रह जाते हैं।

ज्ञानी समझे कर्तव्य नहीं,

कर्म निष्ठ सुने न ज्ञान को।

दोनों राहों में उलझें,

न पायें भगवान को।।

नन्हीं जान्!

1. जीवन में ज्ञान और कर्म दोनों का संयोग अनिवार्य है।

2. ज्ञान का अभ्यास कर्मों में ही होता है।

3. ज्ञान का प्रमाण कर्म ही होते हैं।

4. कर्मों का राज़ ज्ञान में ही छुपा होता है।

5. कर्म को कहें ज्ञान की राह, यानि जिस राह से ज्ञान जीवन में छा जाता है, वह कर्म ही हैं। सो द्वौ मिलन होना ही होगा। अब भगवान बतायेंगे कि यह कैसे हो।

प्रथम ‘निष्ठा’ को सविस्तार समझ ले :

1. निष्ठा का अर्थ है उस विषय में स्थिति जिसमें मन ठहरा हो, जिसमें प्रगाढ़ विश्वास और अनुराग हो।

2. निष्ठा का अर्थ है दृढ़ता।

3. निष्ठा का अर्थ है वह चरम बिन्दु, जिसे पाने के लिये जीव अपने जीवन की बाज़ी लगा देता है।

4. जिसमें निष्ठा होती है, जीव उसे पाने के लिये पूर्ण भक्ति तथा श्रद्धा से प्रयत्न करता रहता है।

नन्हीं! विश्वास, अनुराग, भक्ति, श्रद्धा इत्यादि को निष्ठा कहते हैं।

स्वरूप और रूप :

नन्हीं! ज्ञान स्वरूप है, तो कर्म उसका अनिवार्य रूप है। ज्ञान ब्रह्म है, तो कर्म उसकी निहित अंगिनी प्रकृति है। ज्ञान मौन है, तो कर्म उसका प्राकट्य है। ज्ञान चेतन घन है तो कर्म उसका प्रमाण है। ज्ञान स्थिति है, तो कर्म उसका रूप है। इस नाते ज्ञान और कर्म दोनों अखण्ड हैं।

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