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Chapter 3 Shloka 2
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयो॓ऽहमाप्नुयाम्।।२।।
Arjuna says to Lord Krishna:
You are bewildering my intellect
by Your disparate views!
Therefore speak to me of only that
which will lead to my highest good.
Chapter 3 Shloka 2
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयो॓ऽहमाप्नुयाम्।।२।।
Arjuna says to Lord Krishna:
You are bewildering my intellect by Your disparate views! Therefore speak to me of only that which will lead to my highest good.
Arjuna says, Lord, why are You confusing me by Your contradictory speech? You first bid me to fight a war – then You tell me to strive for the attainment of the Intellect of Yoga.
Now give me Your considered view,
1. Which is the path I should take?
2. Is it preferable for me to engage in war or to strive for an intellect comprised of the knowledge You have given to me?
3. Pray point out clearly that path, which will lead to my highest good.
Arjuna is voicing the sadhak’s dilemma.
a) The knowledge You have given can bring about an inner change of the mind. Its purpose seems to be to augment the intellect and alter one’s point of view.
b) On the other hand You are also directing me to fight this war.
Both these paths seem to be contradictory. My mind is confused. One is the path of knowledge and the other is the path of action. Whilst performing actions, contact with sense objects is inevitable – then what can I do?
a) What I have to achieve is on the subtle plane, through knowledge and meditation. What will I then gain through this warfare?
b) It is my mind which I have to discipline on the internal plane – how can this be accomplished through the annihilation of an external enemy?
c) If the intellect has to be promoted, is it possible to do so through engaging in action?
Oh Lord! How can these two diverse paths be brought together? If on the one hand I engage in this terrible war and on the other hand I expound lofty tenets of knowledge, I may lose in both spheres.
The sadhak’s problem
Little one, the same conflict arises in the mind of the spiritual aspirant today.
1. Is knowledge superior to action?
2. Is it better to engage in action or to sit in solitude and meditate?
3. Is it preferable to interact in the world or renounce it?
4. Is sense contact advisable or renouncement of sense objects?
5. Is it better to discharge one’s duty towards others or is it better to distance oneself from them and from any actions related to them?
6. Should one renounce sense objects and attain a steady intellect or should one maintain one’s contact with those objects and discharge all one’s duties?
Arjuna seems to be saying to the Lord:
a) On the one hand You laud fearlessness, on the other You speak of duty.
b) You praise mental equanimity and yet urge me towards action.
c) You speak of egolessness and yet tell me to involve myself in worldly affairs.”
Even today, the sadhak is unable to comprehend how these two seemingly diverse attitudes can ever meet. Arjuna requests the Lord to clarify the matter.
अध्याय ३
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।२।।
अर्जुन ने भगवान से कहा :
शब्दार्थ :
१. आप मिश्रित वचनों से मेरी बुद्धि मोहित करते हैं,
२. इसलिये वह एक बात निश्चय करके कहिये,
३. जिससे मैं कल्याण को प्राप्त होऊँ।
तत्व विस्तार :
अर्जुन कहते हैं भगवान! आप विपरीत अर्थी वाक् कह कर मुझे मोहित क्यों करते हो ?
आपने तो मुझे और भी भ्रमित कर दिया है। आपकी बातें मुझे समझ नहीं आतीं। कभी कहते हो कि मैं युद्ध करूँ, कभी कहते हो कि मैं ऐसी बुद्धि बनाऊँ जो आपने बताई है !
आपकी बातें तो मैंने सुन लीं, अब आप निश्चय से बताइये कि :
1. मुझे क्या करना चाहिये?
2. मुझे कौन सा पथ लेना चाहिये?
3. मेरे लिये युद्ध रूपा भयंकर कर्म करना उचित है या नहीं?
4. क्या मेरे लिये युद्ध की अपेक्षा ज्ञान के आसरे बुद्धि का उपार्जन करना अधिक कल्याण कारक है?
5. इन दोनों में से जो आप श्रेयस्कर समझते हैं, वह पथ मुझे स्पष्टता से कहिये।
यह कहकर मानो अर्जुन साधक की समस्या की कह रहे हैं :
1. यह सब साधन मन को परिवर्तित करने के लिये हैं।
2. आपने जो कहा वह आन्तर परिवर्तन, दृष्टिकोण परिवर्तन और बुद्धि वर्धन के लिये कहा है।
3. पर साथ साथ आप युद्ध करने के लिये भी कह रहे हैं।
यह दोनों विरोधी से भाव लगते हैं मुझे, इसलिये मैं पूछ रहा हूँ। विरोधी पथ दिखते हैं तो चित्त भ्रमित हो जाता है। एक तो ज्ञान की बात है और दूजा उसके विपरीत, कर्म का पथ है। कर्मों में तो विषयों से सम्पर्क होगा ही, तब मैं क्या करूँगा?
क) जो पाना है वह सूक्ष्म स्तर पर पाना है। यह तो ज्ञान और ध्यान की बात है, तो स्थूल युद्ध रूप कर्म किये क्या होगा?
ख) आन्तर में मन को मनाना है, तो बाह्य शत्रु दमन किये क्या होगा?
ग) बुद्धि को ही बढ़ाना है, तो कर्म किये अब क्या होगा?
भगवान! यह दो पथ अलग अलग हैं, इन दोनों का समन्वय कैसे होगा?
यदि एक ओर मैं इतने घोर कर्म करूँ और दूसरी ओर उस ज्ञान की बात करूँ, तो शायद न इधर का रहूँगा न उधर का रहूँगा।
साधक की समस्या :
नन्हीं! आज कल भी साधक गण की यही समस्या है कि :
1. कर्म श्रेष्ठ है या ज्ञान श्रेष्ठ है?
2. कर्म श्रेष्ठ है, या एकान्त में चित्त का ध्यान लगाना श्रेष्ठ है?
3. जग में रहना श्रेष्ठ है, या जग का त्याग श्रेष्ठ है?
4. विषय सम्पर्क श्रेष्ठ है, या विषयों का त्याग श्रेष्ठ है?
5. लोगों के प्रति कर्तव्य निभाना श्रेष्ठ है, या लोगों को छोड़ देना और कर्मों का त्याग उचित है?
6. विषय त्याग करके स्थिर बुद्धि को ग्रहण करना चाहिये, या विषयों से सम्पर्क रखते हुए जीवन में कर्तव्य निभाना चाहिये?
सो मानो अर्जुन कह रहे हों कि भगवान :
क) आप एक ओर निर्भयता की कहते हो, दूसरी ओर कर्तव्य की बात कहते हो।
ख) आप एक ओर समत्व भाव को सराहते हो, दूजी ओर कर्म में प्रवृत्त होने की बात कहते हो।
ग) आप एक ओर निरहंकार की कहते हो, दूजी ओर मुझे विषय रमण की बात सुझाते हो।
यह सब बातें उसकी समझ में नहीं आईं! जैसे आज कल अन्य साधकों को भी समझ में नहीं आता कि :
1. इन विरोधात्मक बातों का जीवन में समन्वय कैसे हो?
2. इन विपरीत कर्मो का आपस में मिलन कैसे हो?
3. इन वियोगी और विरोधी भावों का आपस में संयोग कैसे हो?
यानि, हम एकान्त में बैठकर स्थिर बुद्धि बनायें, या जीवन के संग्राम में प्रवृत्त हो जायें!
अर्जुन भगवान से कह रहे हैं कि ‘आप ही इसे स्पष्ट कहो’।