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Chapter 2 Shloka 72
एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७२।।
The Lord says:
O Arjuna! This is the state of a person
who has realised Brahm. Achieving this state,
one cannot be deluded. Established in this belief,
even at the end of life he attains union with Brahm.
Chapter 2 Shloka 72
एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७२।।
The Lord says:
O Arjuna! This is the state of a person who has realised Brahm. Achieving this state, one cannot be deluded. Established in this belief, even at the end of life he attains union with Brahm.
The Lord has already described the state of one established in Brahm.
1. The individual is not the body. He is the Atma.
2. Hence he exhorts Arjuna, aspire to be one with the Atma and become an Atmavaan, i.e. a Realised Soul.
3. Lord Krishna then described the intellect required for Yoga or union with the Atma: Thereafter, He specified the attributes of the Sthit Pragya or the One absorbed in Samadhi and introduced Arjuna to the simple method of attaining that state.
Ultimately, Lord Krishna described the difference in attitude between the Atmavaan and those enmeshed in the objective world. Describing in brief the internal state of the Atmavaan, the Lord says that such a One abides in peace, having renounced all gross desires, subtle attachments, the ego and the idea of ‘I’ and ‘mine’. Now the Lord clarifies that this is the Brahmisthiti or the state of One established in the Supreme.
Little one, understand once more, the attitude of One established in this state:
1. With the annihilation of the body idea and when the ‘I’ is united with the Atma, that is the state of Brahmisthiti.
2. Then, such a One, has no further need of nor any attachment with His mind or body.
3. His intellect is ever uninfluenced by its own qualities and the qualities of others. It is untouched by duality.
4. Since He is not the body, He views the body with total detachment; He is oblivious to all that happens to the body – good or bad.
5. Likes and dislikes which existed because of their relationship with the body, are now quelled.
6. He who does not claim His own body, naturally lays no claims on others.
7. Doership is automatically eliminated since doership pertains to the body which is no longer owned by such a One.
8. In this manner, ‘enjoyership’ ceases when the body that enjoys no longer remains important.
9. Such an Atmavaan established in Yoga with the Atma, is completely engrossed in Samadhi.
10. Such a One who is silence itself, speaks, roams, talks and interacts in the world like anyone else. The only difference is that His intellect remains uninfluenced by the objects of the senses. It is devoid of ego and free from the concepts of ‘I’ and ‘mine’.
Little one, he whose intellect is ever uninfluenced, abides in Samadhi. He performs all actions with great proficiency and shrewdness even whilst established in the Atma. He is an objective witness to the actions of His body.
His body performs all the deeds as seen by the world, yet He is innately silent towards Himself. He is ever the non-doer. The Lord says, the Atmavaan, having achieved such a state, is never again subject to moha.
1. He is without name and form even though manifest in the world.
2. He is silence itself even though He speaks and interacts with the world.
3. He does all but is a non-doer.
4. He has transcended all qualities even though He is a repository of divine attributes.
5. He is humility itself – yet firm in the Truth.
Having attained such a state, birth and death have no meaning for Him for these apply to the body. When is such a One born and when does He die? He simply merges – Brahm into Brahm. How then can moha ever arise?
अध्याय २
एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७२।।
भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन!
२. ब्रह्म को प्राप्त हुए की यह स्थिति है!
३. इसको पाकर जीव पुन: मोहित नहीं होता,
४. अन्तकाल में भी इस (निष्ठा) में स्थित होकर,
५. ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! भगवान अर्जुन को समझा रहे हैं कि ‘यही ब्राह्मी स्थिति है’। भगवान पहले ब्राह्मी स्थिति की बता कर आये हैं। पुन: समझ कि भगवान क्या कह कर आये हैं! भगवान ने अर्जुन को कहा कि :
क) जीव तन नहीं है, जीव आत्मा है।
ख) फिर कहा, तू आत्मा से योग कर और तू आत्मवान् बन।
ग) आत्मा से योग करने की विधि बताते हुए भगवान ने अर्जुन से समाधि की बात कही।
घ) भगवान ने यह भी कहा कि निर्द्वन्द्व, निर्योगक्षेम और आत्मवान् बन।
ङ) आत्मा से योग के लिये जैसी बुद्धि की ज़रूरत है, उसे बताया।
च) तत्पश्चात् स्थित प्रज्ञ के लक्षण बताये, जिसे ‘समाधि स्थित’ भी कहा है।
छ) स्थित प्रज्ञता पाने की सहज विधि बताई।
ज) बुद्धि के राज़ खोल दिये।
अन्त में आत्मवान् के और जग वालों के दृष्टिकोण में भेद समझाया। फिर संक्षेप में पुन: आत्मवान् की आन्तरिक स्थिति बताते हुए कहा कि वह स्थूल में सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर, सूक्ष्म स्तर पर संग रहित होकर, बुद्धि के स्तर पर ममत्व भाव रहित होकर और अहंकार त्याग कर तथा ममत्व भाव छोड़ कर नित्य शान्त हो जाता है।
अब कहते हैं कि ब्राह्मी स्थिति यह ही है। नन्हीं! अब इस स्थिति को फिर से समझ ले :
1. जब तनत्व भाव छूट जाता है और ‘मैं’ का आत्मा से योग हो जाता है, उसे ब्राह्मी स्थिति कहते हैं।
2. तब जीव का अपने ही तन से और अपने ही मन से कोई प्रयोजन और संग नहीं रहता।
3. उसकी बुद्धि नित्य अप्रभावित रहती है। ऐसी बुद्धि न अपने गुणों से प्रभावित होती है न ही किसी और के गुणों से प्रभावित होती है। न ही उसकी बुद्धि को कोई द्वन्द्व प्रभावित करते हैं।
4. जब वह तनत्व भाव रहित हो जाता है तब वह जो तन उसका था, उसके प्रति भी उदासीन हो जाता है।
5. जब तन ही उसका नहीं रहा तो वह तन की परवाह नहीं करता। तन को जो भी मिले, शुभ मिले या अशुभ मिले, वह उदासीन ही रहता है।
6. राग द्वेष भी तन के नाते ही होते थे जब तन से ही नाता नहीं रहा, तो अब राग द्वेष कौन और किसके लिये करे?
7. फिर जब तन ही उसका अपना नहीं रहा तो वह और किसी को किस नाते अपना कहे? ऐसी स्थिति में औरों पर अधिकार स्वत: ही छूट जाता है, यानि ममत्व भाव का अभाव स्वत: ही हो जाता है।
8. जब तन ही उसका नहीं रहता तो कर्तृत्व भाव स्वत: ही छूट जाता है, क्योंकि कर्म तन करता है और वह आप तन नहीं है तो तनो कर्म भी उसके अपने नहीं हैं।
9. इस तरह तन के उपभोगों से भी उसका नाता छूट जाता है, यानि उसका भोक्तृत्व भाव भी छूट जाता है।
10. ऐसा आत्मवान् जो आत्मा से योग कर चुका है, वह नित्य समाधिस्थ ही होता है। एक और बात जो यहाँ समझनी चाहिये, वह समाधि के विषय में है।
क) मौन स्वरूप नित्य समाधिस्थ, चलते, फिरते, बोलते और बैठते भी हैं।
ख) उनकी बुद्धि तनत्व भाव से और विषयों से आवृत नहीं होती। न ही वह मन के विषयों से आवृत होती है।
ग) उनकी बुद्धि ‘मैं’ और ‘मम’ भाव से आवृत नहीं होती।
नन्हीं! जिसकी बुद्धि नित्य निर्लिप्त है, वह नित्य समाधिस्थ ही है, और जो आत्मवान् नित्य समाधिस्थ है, वह कर्म कुशल होता है, यह भगवान ने कहा है। वास्तव में तन उठता, बैठता, चलता, फिरता और सब कर्म करता है। वह तो नित्य आत्मा में स्थित, तन की क्रियाओं को मानो द्रष्टावत् दूर से देखते हैं।
भगवान ने यह भी कहा है कि उनका तन जिसे जग देखता है, वह सब कुछ करता है, पर फिर भी वह स्वयं तो मौन स्वरूप नित्य अकर्ता है। भगवान कहते हैं आत्मवान् इस स्थिति को पाकर फिर कभी मोह को प्राप्त नहीं होता।
1. वे तो साकार होते हुए भी निराकार स्वरूप होते हैं।
2. वे नाम रूप वाले होकर भी बिन नाम और रूप के होते हैं।
3. वे तो बातें करने वाले होकर भी नित्य मौन स्वरूप होते हैं।
4. वे तो सब करने वाले होकर भी नित्य अकर्ता होते हैं।
5. वे तो निर्गुण स्वरूप होकर भी गुणों का भण्डार होते हैं।
6. वे, जिन्हें कोई झुका नहीं सकता, अपार झुके हुए होते हैं।
यह राज़ तब ही समझ आ सकता है, जब तुम आत्मवान् को समझ लो।
ऐसी स्थिति को प्राप्त होने के बाद जन्म या मृत्यु कोई अर्थ नहीं रखते। जन्म और मृत्यु केवल तन के नाते होते हैं और वे तो तन से अपना नाता ही तोड़ चुके हैं।
ऐसे लोग कब जन्मते और कब मरते हैं? ऐसे लोग तो ब्रह्म में ब्रह्म ही हो जाते हैं, पुन: मोह का सवाल ही कहाँ रहा?
ॐ तत्सदिति श्री मद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम
द्वितीयोऽध्याय:।।2।।