Chapter 2 Shloka 68

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।६८।।

He whose sense organs are

unattached to the objects of the senses

and who has full control over them,

he is of a steady intellect.

Chapter 2 Shloka 68

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।६८।।

Bhagwan says:

Therefore, O Arjuna! He, whose sense organs are unattached to the objects of the senses and who has full control over them, he is of a steady intellect.

Little one, when the Lord stipulates that, “He, whose senses are completely under control is possessed of a stable intellect,” He means:

a) The senses should be subservient to the intellect – not to the mind.

b) Enjoyment of the objects of the senses makes no difference. It is only when the mind supports the senses and is affected by sense objects that it veils the intellect.

c) If the mind did not support the sense faculties, objects would cease to be ‘poisonous’ for the individual.

Therefore, the Lord speaks here of renouncing attachment of the mind, and not of the cessation of contact with sense objects.

When the mind no longer supports the sense faculties, the latter can be controlled. Then likes and dislikes will no longer impel our pursuit of sense objects.

1. When the mind is predominant, likes and dislikes rule the individual.

2. When the intellect rules, the individual becomes detached from objects.

3. Then objects cease to be important.

4. The intellect is gratified with whatever it receives and does not clamour for more.

The steady intellect is thus never influenced by sense objects – nor is it distressed if it is unable to partake of those objects. Understand this carefully that without food, the body of the Sthit Pragya certainly becomes weak – but his intellect remains unaffected. Though the body requires sustenance, the intellect requires no nourishment from the outside world. It has transcended the gross and subtle world of objects.

In other words he who possesses a dispassionate intellect and a silent mind, is a Sthit Pragya.

अध्याय २

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।६८।।

भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. इसलिये हे अर्जुन!

२. जिसकी इन्द्रियाँ

३. इन्द्रियों के विषयों से सब प्रकार से वश में की हुई होती हैं,

४. उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! अब भगवान कहते हैं, “जिसकी इन्द्रियाँ सब प्रकार से वश में की हुई होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।” यह सब कहने का अभिप्राय इतना ही है कि :

क) इन्द्रियों पर मन का राज्य नहीं होना चाहिये, उन पर बुद्धि का राज्य होना चाहिये।

ख) केवल विषय के उपभोग मात्र से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मन ही इन्द्रियों के साथ रह कर, विषयों से प्रभावित होकर बुद्धि को आवृत करता है।

ग) यदि मन इन्द्रियों का साथ न दे तो विषय विषपूर्ण नहीं रहते।

घ) वह यहाँ पर विषय त्याग की बात नहीं कह रहे, वह तो मन के त्याग की बात कह रहे हैं।

जब मन इन्द्रियों का साथ नहीं देगा, इन्द्रियाँ स्वत: ही वश में हो जायेंगी। तब मनो रुचि या अरुचि के कारण इन्द्रियों की विषय उपभोग में प्रवृत्ति नहीं होगी।

वास्तव में नन्हीं!

1. मन प्रधान हो जाये तो रुचि अरुचि प्रधान हो जाती है।

2. बुद्धि प्रधान हो जाये तो जीव विषयों के प्रति उदासीन हो जाता है।

3. बुद्धि प्रधान हो जाये तो विषयों का कोई ख़ास महत्व नहीं रहता।

4. बुद्धि को जो मिल गया सो ठीक, जो न मिला वह न सही।

स्थिर बुद्धि विषय उपभोग मिलने पर विषयों से आवृत नहीं होती और विषय के न मिलने पर विचलित नहीं होती। अब और भी ध्यान से समझ! अन्न न मिलने से स्थित प्रज्ञ का तन क्षीण ज़रूर हो जायेगा किन्तु उनकी बुद्धि नित्य अप्रभावित रहेगी। तन को पालने के लिये तो वही सब चाहिये जो तन को पुष्टित करे, किन्तु उसकी बुद्धि को बाह्य अन्न नहीं चाहिये। उसकी बुद्धि स्थूल तथा सूक्ष्म विषयों से सर्वथा परे होती है।

यानि जब बुद्धि नित्य अप्रभावित रहे और मन नित्य मौन रहे, तब वह स्थित प्रज्ञ कहलाता है।

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