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Chapter 2 Shloka 67
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।६७।।
Just as a strong wind carries away a ship on the water,
so also among the senses disposed to objects,
whichever sense gains the support of the mind,
that sense faculty abducts
the intellect of that individual.
Chapter 2 Shloka 67
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।६७।।
Just as a strong wind carries away a ship on the water, so also among the senses disposed to objects, whichever sense gains the support of the mind, that sense faculty abducts the intellect of that individual.
The Lord states here that even a single sense faculty which gains the support of the mind can abduct the intellect of that individual.
The mind
1. Even if all the sense organs together partake of the objects of the world, they cannot abduct nor silence the intellect.
2. Yet, that sense faculty which is supported by the mind, can gain supremacy over the intellect.
3. The sense faculties gain supremacy due to the attachment of the mind.
4. Then the objects of the world become all important to that individual.
5. He becomes dependent on and the slave of objects.
6. He immediately gets into action to procure the object which is selected by his sense faculties.
7. He becomes oblivious to the right and wrong mode of action and also to other individuals.
8. He does not even remember how many people he has wronged in the process.
9. His values undergo a metamorphosis and he becomes individualistic and selfish.
10. With the mind thus led by the sense faculties, the individual is blinded. The sense faculties in turn, are controlled by the objects of sense satiation.
11. These objects and sense faculties are both blind. When the mind’s attachment lies in the enjoyment of sense objects via the senses then:
– such a mind covers up the intellect;
– the intellect no longer remains objective and free;
– it becomes subservient to the mind and shows the mind the way to procure those objects which it covets.
The intellect is a divine gift of the Lord and you can use it as you wish. It is a faculty of discrimination which can illumine the way to become an Atmavaan, or it can guide the body, senses and the mind towards the achievement of their gross desires. The pure intellect can reveal the Truth in its entire glory. Justice is inherent in such an intellect. It can guide one towards the path of inculcation of divine qualities in life. Unfortunately a person engrossed in the mind refrains from seeking its guidance. He listens to the dictates of the mind. He pursues his desires and endeavours to escape from what he does not like. The Lord says, when the mind thus supports the organs of sense, pragya is destroyed.
Pragya (प्रज्ञा) – The pure intellect
1. What flows from the unveiled intellect can be called pragya.
2. When the intellect is uninfluenced by the likes and dislikes of the mind, then all decisions that it takes are that of a pragyavaan or one who is possessed of pragya.
3. When the intellect is not perturbed by fame or dishonour, loss or gain etc. it flows as pragya.
It is important to note here, little one, that the Lord is not stressing on the renunciation of sense objects – He is referring to relinquishing attachment of the mind with those objects. For even if the individual partakes of all sense objects, if the mind is not attached to that enjoyment of the senses, pragya is retained.
Therefore, it is clarified here that sense objects should not predominate in our lives – or else the mind becomes supreme and the intellect is destroyed. If the mind gains ascendency, those objects which capture the attachment of the mind become all important and the individual becomes a slave of those objects. Thereafter, their procurement becomes his only goal. He ceases to discriminate between right and wrong, duty and non-duty, dharma and adharma, truth and falsehood. He becomes selfish and devoid of pragya, or the pure intellect.
This entire change is wrought by the mind:
a) It is the mind and its attachment which abducts the intellect.
b) The sense faculties gain strength with the support of the mind, and the sense objects become vital.
c) The mind is the enemy of the intellect.
d) It obliterates the Truth and becomes a veil of illusion.
e) The mind seduces one away from the Truth.
f) It is the mind which engenders moha.
It is the mind which dons the garb of ignorance and establishes enmity with the intellect. In due course, the boat of truth begins to sink.
अध्याय २
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।६७।।
अब भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. ज्यों तीव्र वायु जल में पड़ी नैया को हर लेती है,
२. त्यों विषयों का उपभोग करती हुई इन्द्रियों में से जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है,
३. वह इन्द्रिय उस पुरुष की (निर्णयात्मिका शक्तिरूप) प्रज्ञा को हर लेती है।
तत्व विस्तार :
यानि जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक इन्द्रिय भी बुद्धि को हर लेती है। यह सूक्ष्म बात है, ध्यान से समझ!
मन :
1. चाहे सम्पूर्ण इन्द्रियाँ विषय उपभोग करें,
क) वह बुद्धि को नहीं हरतीं;
ख) तब भी बुद्धि गौण नहीं होती;
2. परन्तु:
क) जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है,
ख) यानि जिस इन्द्रिय के साथ मनो संग हो जाता है,
ग) जिस इन्द्रिय में मन की रुचि हो जाती है, वह इन्द्रिय बुद्धि को हर लेती है।
3. इन्द्रियों की प्रधानता मनोसंग के कारण ही होती है।
4. फिर विषय प्रधानता हो जाती है।
5. तब जीव विषयों के आश्रित और पराधीन हो जाता है।
6. वह इन्द्रिय रोचक विषय पाने के लिये कार्य में संलग्न हो जाता है।
7. तब उसे उचित अनुचित कार्य प्रणाली अथवा दूसरे लोगों का भी ध्यान नहीं रहता।
8. जहान में कितनों को दु:ख दिया या तड़पाया, इसका भी ध्यान नहीं रहता।
9. उसके जीवन के मूल्य बदलने लगते हैं।
10. वह व्यक्तिगत और स्वार्थी होने लगता है।
11. मन ने जब इन्द्रियों का आश्रय लिया, तब जीव अन्धा होने लगता है, क्योंकि इन्द्रियाँ विषयों का आश्रय लेने लगती हैं।
12. विषय और इन्द्रियाँ, दोनों ही अन्धे हैं। मनो संग इन्द्रिय राही स्थूल विषय उपभोग में हो जाये, तब :
क) वह मन बुद्धि को आवृत कर देता है।
ख) बुद्धि स्वतंत्र नहीं रहती, वह मन से प्रभावित हो जाती है।
ग) इतना ही नहीं, वह मन की चाकर बन कर मन को रुचिकर पाने की विधि बताने लग जाती है।
अभी के लिये तुम इतना ही समझ लो कि यह बुद्धि, जो जीव को ब्रह्म ने दी, एक परम आलौकिक भागवत् देन है, इसको जैसे आप चाहें इस्तेमाल कर सकते हैं। यह निर्णयात्मिका शक्ति है और भगवान जैसा बनने की विधि भी सुझा सकती है। दूसरी ओर यह तन तथा इन्द्रिय और मन को संग के विषय को पाने की विधि भी बता सकती है।
निरावृत बुद्धि सत् की सत्यता और असत् की असत्यता दिखा सकती है। इस बुद्धि में न्याय शक्ति निहित होती है। यह दैवी सम्पदा को जीवन में उतार सकती है। पर जीव साधारणतय: इसे पूछता ही नहीं व मनोस्तर पर ही रह जाता है। जो मन चाहे, वह उसके ही पीछे भागता है। जो मन को रुचिकर हो, उसे चाहता है और उसे पाने के यत्न करता है। जो मन को अरुचिकर हो उससे दूर भागना चाहता है।
यहाँ कहते हैं जब मन इन्द्रियों से जाये मिले, तब प्रज्ञा का नाश हो जाता है। पहले प्रज्ञा को समझ लो!
प्रज्ञा :
1. निरावृत बुद्धि से जो बहे, उसे तुम प्रज्ञा कह लो।
2. जब बुद्धि अपने मन की रुचि अरुचि से भी अप्रभावित रहे तब उसका हर निर्णय प्रज्ञावान् का निर्णय होता है।
3. जब बुद्धि अपने मान अपमान, हानि लाभ से विचलित न हो तब उसका बहाव प्रज्ञा बहाव होता है। देख मेरी जान्! यहाँ विषय त्याग की बातें नहीं कही, विषयों से मन के संग के त्याग की बात कही है।
4. पूर्ण उपभोग करते हुए भी गर वहाँ मन का संग न हो तो प्रज्ञा नहीं डोलती।
विषय प्रधान नहीं होने चाहियें, प्रधान परम गुण होने चाहियें, वरना बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और मन प्रधान हो जाता है। मन प्रधान होने से मन का संग जिन विषयों से है, वह प्रधान हो जाते हैं और जीव विषयों पर आश्रित हो जाता है। तत्पश्चात् जीव नित्य उन विषयों को उपलब्ध करने में तत्पर हो जाता है। वह उचित अनुचित में, कर्तव्य अकर्तव्य में, धर्म अधर्म में, सच और झूठ में भेद भूल जाता है तथा व्यक्तिगत और स्वार्थी हो जाता है। फिर प्रज्ञा या सत् बुद्धि लुप्त हो जाती है।
यह सब मन के कारण होता है, इसलिये कहते हैं :
क) बुद्धि को हरने वाला मन और मनोसंग ही है।
ख) मन साथ दे तो इन्द्रियाँ बलवान हो जाती हैं और विषय सप्राण हो जातेहैं।
ग) मन ही बुद्धि का दुश्मन है।
घ) मन ही सत् का हरण करता है।
ङ) मन ही अज्ञान आवरण बन जाता है।
च) मन ही सत् से दूर करवाता है।
छ) मन ही मोह को जन्म देता है।
अज्ञान बन कर बुद्धि से दुश्मनी मन ही करता है; तब सत् की नैया डूब जाती है।