अध्याय २
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।६४।।
अब भगवान कहते हैं कि अर्जुन, विषयों में कोई दोष नहीं होता।
शब्दार्थ :
१. वशवर्ती मन वाला पुरुष,
२. राग द्वेष से रहित हुआ
३. और वश में की हुई इन्द्रियों से,
४. विषयों को भोगता हुआ भी,
५. प्रसाद को प्राप्त होता है।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! विधेयात्मा को प्रथम समझ ले।
विधेयात्मा का अर्थ है :
1. जिसका अनुष्ठान उचित हो,
2. आज्ञा पालक,
3. वश में रहने वाला,
4. जो अपने अधीन हो,
5. जो विनम्र अनुचर हो।
भगवान कहते हैं, जो जीव राग द्वेष से रहित है, जिसकी इन्द्रियाँ अपने वश में हैं और जिसका मन बुद्धि की आज्ञा का अनुसरण करता है, वह पुरुष सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषय भोगता हुआ भी परम प्रसाद को पाता है।
नन्हीं! प्रसाद का अर्थ यहाँ समझ लेना उचित होगा।
प्रसाद :
1. प्रसाद यज्ञशेष को कहते हैं।
2. कर्तव्य करते हुए जो सुखकारक गुण आपको मिलते हैं, वह गुण प्रसाद है।
3. शुभ तथा पुण्य कर्म के परिणाम स्वरूप मन को जो शान्ति मिलती है, उसको प्रसाद कहते हैं।
4. भगवान के चरणों में अपने आपको अर्पित करने से नित्य आनन्द रूप प्रसाद मिलता है।
5. निष्काम भाव से कर्म करने से जीव को करुणा, दया, दक्षता रूप प्रसाद मिलता है।
6. राग द्वेष रहितता का प्रसाद शुद्ध चित्त तथा समत्व भाव है। यानि, जो जीव राग द्वेष से रहित होते हैं और कर्तव्य परायण होते हैं, वे दैवी गुण रूप प्रसाद पाते हैं। वे तो स्वयं संसार में लोगों के लिये एक प्रसाद ही होते हैं क्योंकि वे:
1. निष्काम सेवा करते हुए अपना जीवन यज्ञमय बनाते हैं।
2. उनकी निष्काम सेवा का फल संसार को ही मिलता है।
3. संसार में दु:ख तथा आततायियों से हराये गये लोगों के तो यह नित्य संरक्षक तथा सेवादार होते हैं।
4. लोगों के लिये तो यह नित्य भागवत् प्रसाद रूप ही होते हैं।
ऐसे लोग, जो अपने लिये कुछ नहीं करते, वे सम्पूर्ण विषयों का भोग करते हुए भी विषयों से लिपायमान नहीं होते।