अध्याय २
ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते।
संगात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते।।६२।।
मन जब विषयों का चिंतन करता है तब क्या होता है; अब भगवान अर्जुन को यह बताने लगे हैं।
शब्दार्थ :
१. विषयों को ध्याते हुए,
२. पुरुषों का संग उन विषयों में उत्पन्न हो जाता है,
३. संग से काम उत्पन्न हो जाता है,
४. (और) कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।
तत्व विस्तार :
अब तनिक समझ नन्हीं!
भगवान ने क्यों कहा कि ‘चित्त मुझमें धरेगा, तो विषयों से संग छूट जायेगा और इन्द्रियाँ संयम में आ जायेंगी’, – क्योंकि, यदि तुम्हारा मन विषयों को ध्याता रहा तो विषयों से संग हो जायेगा।
भगवान कहते हैं अर्जुन! तू मुझमें ध्यान लगा। यदि विषयों में ध्यान लगायेगा तो तेरी इन्द्रियाँ क्या क्या ज़ुर्म करेंगी, उसे समझ ले।
‘ध्यायते’ का अर्थ समझ ले:
क) किसी विषय का चिन्तन करना।
ख) किसी विषय को उपस्थित करना।
ग) किसी विषय को याद करना।
घ) किसी विषय का विचार करना।
भगवान कहते हैं कि विषयों का चिन्तन करो तो उन विषयों से आसक्ति हो जाती है और फिर उन्हें पाने की कामना उत्पन्न हो जाती है। फिर जब कामना पूर्ण न हो तो जीव को क्रोध आ जाता है। संग पूर्ण कामना, चिन्तन किये गये विषय की उपलब्धि के नित्य यत्न करती रहती है।
जब मन यह कहता है :
1. काश यह मिल जाये।
2. काश! यह न होता, कुछ और हो जाता।
3. काश कोई आ जाये।
4. काश कोई न आये।
बस इन्हीं ख़्यालों में मन विषयों का ध्यान करता है और फिर जहाँ आसक्ति हो जाये, उस विषय को पाने के लिये अनेकों प्रकार के यत्न करता है।
क्रोध :
जब मन को अपने प्रयत्नों के प्रतिरूप में वांछित फल न मिले तब वह क्रोधपूर्ण हो जाता है।
1. वह चाहता है कि सारा जहान बदल जाये और उसके अनुकूल हो जाये। जब ऐसा नहीं होता तो उसका क्रोध भड़क जाता है।
2. वह किसी से मान चाहता है और यदि न मिले तो क्रोध युक्त हो जाता है।
3. जीव चाहता है कि उसकी कमज़ोरियाँ छिपी रहें, किन्तु जब कोई उन्हें ज़ाहिर कर देता है तब वह क्रोधपूर्ण हो जाता है। वास्तव में क्रोध वांछित फल के न मिलने से आता है।
भगवान कहते हैं कि यदि ध्यान भगवान पर टिका रहे तो विषय आसक्ति नहीं होगी और कामना भी मौन हो जायेगी।