अध्याय २
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:।।६०।।
भगवान अब इन्द्रियों की बातें अर्जुन को बताते हैं और कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. निश्चय ही,
२. यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी,
३. यह प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ,
४. बलात्कार से हर लेती हैं।
तत्व विस्तार :
प्रथम ‘विपश्चित:‘ को समझ ले, विपश्चित: का अर्थ है :
क) बुद्धिमान पुरुष,
ख) विवेकी पुरुष,
ग) महाज्ञानवान, प्रवीण गण,
घ) जो इन्द्रिय दमन करने में लगे हैं।
प्रमाथीनि का अर्थ है :
1. धक्केबाज, बलवान, अति प्रबल, ज़बरदस्ती करने वाली,
2. क्षति पहुँचाने वाली,
3. क्षोभ उत्पन्न करने वाली।
भगवान कहते हैं कि महाज्ञानी और बुद्धिमान गण को भी ये इन्द्रियाँ :
1. बलात्कार से हर लेती हैं।
2. अपनी प्रबलता के कारण धोखा देकर हर लेती है।
यह तो होगा ही क्योंकि :
क) जब तक तन है तब तक विषय सम्पर्क तो होगा ही।
ख) जब तक मन है तब तक विषय सम्पर्क के पश्चात् पसन्द या नापसन्द का भाव भी उठेगा ही।
ग) जब तक रुचिकर तथा अरुचिकर रहेगा तब तक जीव रुचिकर की प्राप्ति के यत्न करेगा ही।
घ) देहात्म बुद्धि प्रधान जीव की सहज प्रवृत्ति सुख की ओर होती है।
ङ) फिर जीव को आदतें भी पड़ जाती हैं, जिन्हें तोड़ना अतीव कठिन है।
जीव को विषय उपभोग की भी आदत पड़ जाती है। उसके मन और बुद्धि को भी अनेकों आदतें पड़ जाती हैं। उसकी कर्म प्रणाली भी गूढ़ हो जाती है और उसकी भी आदत पड़ जाती है। यह आदतें भी जीव का अनेकों विषयों से सम्पर्क करा देती हैं। इन आदतों को तोड़ना भी अतीव कठिन हो जाता है।
नन्हीं! जब तक जीव संग के कारण अपने तन से ही मोह करता है और वह अपनी ही रुचि अरुचि में अन्धा रहता है, तब तक उसकी आदतें उसे बांधे रखती हैं। जब जीव का प्रेम किसी और से हो जाये, वह अपने तन की परवाह नहीं करता। फिर वह अपने प्रेमास्पद की ख़ुशी में खो जाता है और अपने प्रेमास्पद में अपने आपको भूल जाता है। वह अपने प्रेम में अपनी इन्द्रियों को भी भूल जाता है। मानो तब उसके लिये उसका प्रेमास्पद सम्पूर्ण संसार के विषयों से अधिक रुचिकर हो जाता है।
क) ऐसे प्रेमास्पद में तल्लीन हुए प्रेमी को उसकी इन्द्रियाँ नहीं सता सकतीं।
ख) ऐसे प्रेमास्पद में तल्लीन हुए प्रेमी को सब कुछ छोड़ देने में भी दु:ख नहीं होता। वास्तव में तब अनुचित स्वत: ही छूट जाता है।
भक्त भगवान के प्रेम में अपने आपको भूल जाता है, उसे अपना मान अपमान भी याद नहीं रहता। जिसने कभी प्यार किया है, वह इसका राज़ अनुभव से जानता है। जिसने कभी प्रेम किया ही नहीं, वह इस बेख़ुदी को नहीं समझ सकता।