अध्याय २
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।५८।।
भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. जैसा कछुआ सब ओर से अपने अंगों को अपने में समेट लेता है,
२. वैसे ही जब यह (स्थित प्रज्ञ)
३. सब ओर से इन्द्रियों को इन्द्रियों के अर्थों से समेट लेता है,
४. तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
तत्व विस्तार :
नन्हीं!
1. जीव का विषयों से सम्पर्क इन्द्रियों के राही ही होता है।
2. जीव को संसार की प्रतीति भी इन्द्रियों राही होती है।
3. तन की इन्द्रियाँ ही जीव को स्थूल विषयों के गुण सुझाती हैं।
4. मन इन्द्रियों के राही ही विषयों का उपभोग करता है।
5. मन इन्द्रियों के राही ही विषयों को जान कर उन्हें पसन्द या नापसन्द करता है।
6. मन ही इन्द्रियों को बार बार विषयों से सम्पर्क कराने के लिये भेजता है।
7. स्थूल में इन्द्रियाँ विषयों से ज्ञान लाती हैं और मन उनके इस ज्ञान का उपभोग करता है।
8. मन को ही कोई विषय पसन्द आता है और मन ही किसी अन्य विषय को पसन्द नहीं करता।
9. जो विषय मन को पसन्द आया, मन इन्द्रियों को उसी ओर जाने के लिये प्रेरित करता है।
10. शनै: शनै:, मन इन्द्रियों राही जिस विषय का रस पीता रहा है, उसी विषय के आश्रित हो जाता है। क्योंकि वह विषय मनो रोचक होता है, इस कारण विषय रस रसिक मन उस विषय की रसना में बंध जाता है। तब वह विषय उस जीव के लिये मानो ज़रूरी हो जाता है। क्यों न कहें वह जीव स्थूल विषय के आश्रित हो जाता है।
स्थित प्रज्ञ तो अपने तन से ही नाता छोड़ देते हैं। जैसे कछुआ सब ओर से अपने अंगों को अपने में समेट लेता है, वैसे ही स्थित प्रज्ञ, तन मरे या जिये, उसकी परवाह नहीं करता। वह तो अपने आपको मन से भी दूर कर लेता है। मन तो इन्द्रिय पुंज है ही और इन्द्रिय सम्पर्क तो विषयों से होता ही रहता है। स्थित प्रज्ञ बार बार ध्यान लगा कर इन्द्रियों को विषयों से दूर करने की चेष्टा करता है। वह तो तन को गुण रचित, जड़ तथा मृत्यु धर्मा जान कर और अपने आपको आत्मा मान कर तनत्व भाव से मानो ‘मैं’ को ही खींच लेता है।
उसकी बुद्धि, तन या मन की इन्द्रियों से लिपायमान नहीं होती और वह विषयों से प्रभावित नहीं होती।