अध्याय २
दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।५६।।
भगवान स्थित प्रज्ञ के चिह्न बताते हुए कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. दु:ख में क्षुब्ध न होने वाले मन वाला,
२. सुख में संग रहित (और)
३. राग, भय और क्रोध रहित,
४. स्थितधी, स्थित प्रज्ञ मुनि कहलाता है।
तत्व विस्तार :
फिर मन की ही बात कह रहे हैं भगवान, फिर मनो स्थिति की बात कहते हैं।
‘साधना’ मन को होता है या सत् पथ पर लाना मन को होता है। साधना का राज़ पुन: कहते हैं। वास्तव में जो सब कह आये हैं उसी को यहाँ पुन: बता रहे हैं कि मनोवृत्ति निरुद्ध करोगे तो बाकी शुद्ध बुद्धि रह जायेगी। अब पुन: यहाँ कहते हैं कि:
दु:ख रहित :
1. विपरीतता, जो दु:ख देती है, अरुचिकर जो दु:ख देता है, उसे देख कर, उसे पाकर जिसका मन :
क) पीड़ित नहीं होता,
ख) दु:खी नहीं होता,
ग) शोक ग्रस्त नहीं होता,
घ) विक्षिप्त नहीं होता,
ङ) घबरा नहीं जाता,
च) ईर्ष्या, शत्रुता, द्वेष से नहीं भर जाता,
छ) दूसरे को बुरा जान कर अपना मुखड़ा वहाँ से फेर नहीं लेता,
यानि इन सबको पाकर वह क्षुब्ध नहीं हो जाता।
सुख जो मिले जीवन में वह :
1. संग रहित ही रहता है।
2. सुख देने वाले विषय के प्रति संग नहीं उठ आता उसका।
3. लोलुप्त नयन से नहीं देखता वह सुख देने वाले विषय को।
4. ‘कबहुँ न बिछुड़े यह सुख हमसे’, ऐसे भाव में वह नहीं रहता।
5. सुख की भी तृष्णा वह नहीं करता।
राग रहित अर्थात् रुचिकर से संग रहित होता है। भय रहित है वह! अब किसका भय उसको हो सकता है जीवन में?
क) क्या बिछुड़े या मिले तन को, अब उसका तो कोई तन ही नहीं।
ख) तन ही उसका नहीं रहा तो सुख दु:ख भी उसके नहीं रहते।
ग) मृत्यु भय भी चला गया क्योंकि तन से नाता ही नहीं रहा।
घ) भय तन के कारण होता है, अब भय का कारण ही मिट गया। भय अब किस कारण करें जब भय का मूल ही मिट गया?
क्रोध रहित :
क्रोध भी अब नहीं आता उसे :
1. रुचिकर न मिले, तब क्रोध आता है। जब रुचि अरुचि से ही संग नहीं रहा, तो क्रोध कैसा?
2. अरुचिकर मिले तो क्रोध आता है, अब वह बात ही नहीं रही।
3. कुछ पाना हो और न मिले तो क्रोध आता है, पर अब कुछ पाना ही नहीं रहा।
4. वाद विवाद में पड़ जायें और फिर जीत न सकें तो क्रोध आता है, अब अपनी बात ही नहीं रही।
5. अपनी बात समझा न सकें तो क्रोध आता है, पर अब कोई समझे या न समझे, कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता।
6. कोई न्यून कह दे तो क्रोध आता है, अब न्यून श्रेष्ठ तन के साथ ही चले गये।
7. जब न्यूनता अपनी छिपा न सकें तो क्रोध आता है, अब वह बात गई।
8. स्वयं निर्बल हों तो क्रोध आता है, अब बल तथा निर्बलता भी तन के साथ चले गये।
9. जब मान जाये तो क्रोध आता है, तन ही अपना चला गया, अब क्रोध कौन किस पर करे?
भगवान कहते हैं, ‘जो दु:ख से क्षुब्ध नहीं हों, सुखों से संग न करें और राग, भय और क्रोध रहित हों, वह मुनिगण स्थित बुद्धि कहलाते हैं।’
नन्हीं! इसे फिर से समझ ले !
जो तनत्व भाव के त्याग के प्रयत्न कर रहे हैं, वह इन गुणों से परे होते हैं। तनत्व भाव के अभाव का अभ्यास भी जीवन में तनत्व भाव के अभाव को मानते हैं। राग द्वेष के अभाव का अभ्यास भी जीवन में राग द्वेष को छोड़ने में है। लक्ष्य का अभ्यास ही साधक को उसके लक्ष्य में स्थित करवा देता है।