Chapter 2 Shloka 56

दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।

वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।५६।।

One whose mind is undisturbed in adversity

and who is free from attachment amidst pleasures;

one who is without strong likes, fear or anger

and is possessed of a steady intellect,

that Sthit Pragya is known as a Muni.

Chapter 2 Shloka 56

दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।

वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।५६।।

Specifying the qualities of the Sthit Pragya, Lord Krishna says:

One whose mind is undisturbed in adversity and who is free from attachment amidst pleasures; one who is without strong likes, fear or anger and is possessed of a steady intellect, that Sthit Pragya is known as a Muni.

The Lord once again refers to the mind, for that has to be purified and made to tread the path of truth. The Lord reiterates here that when the mental knots or chit vrittis are dispelled, only the pure intellect remains.

He who is not perturbed by pain

He who remains unaffected, unagitated and untroubled by sorrow, negativity or that which he does not like, who does not overflow with jealousy, enmity or hatred and does not reject anyone he dislikes.

And he who is uninfluenced by pleasure

Who is not attached to, nor covets pleasurable objects; who is not in constant fear of losing that which gives him pleasure and one who is not continually longing for the longevity of benefits received.

He who is free from fear

Such a one becomes fearless. He is unattached to his body. And thus he is unaffected by union or parting, birth or death, pleasure or pain. He is not afraid of death and pain because it is the body which is afflicted by these and he is no longer the body.

He does not suffer from anger

1. Anger arises when one does not achieve one’s desired object. Since such a one is unaffected by likes and dislikes, since he wants nothing – where is there any cause for anger?

2. Anger is born when one confronts opposition or negativity. How can such a predicament affect one who has transcended likes and dislikes?

3. Nor is he affected by losing in discussion or by his inability to convince the other in argument. Since his own opinion no longer matters, there is no scope for anger.

4. Insulting behaviour by another is ineffective because all insults pertain to the body and mind – both of which he has ceased to identify with.

5. The inability to veil one’s lacunae leads to an outburst of anger, but this no longer applies to the Sthit Pragya.

6. The weak give in to anger; but weakness and strength have ceased to matter to such a one when body importance diminishes.

7. Loss of reputation causes anger. When he abides in the Atma there is no one who will be left to harbour anger against any one.

Little one, understand this once again. He who is striving to rise above the body idea is beyond all these gunas or attributes. The practice of transcendence of anger lies in relinquishing anger in a living situation. The practice of transcending likes and dislikes lies in actually giving up one’s likes and dislikes in life. One can only attain the goal by its constant practice in day to day life.

One who has perfected this attitude in life is a sage, a muni, the one with a steady intellect.

अध्याय २

दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।

वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।५६।।

भगवान स्थित प्रज्ञ के चिह्न बताते हुए कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. दु:ख में क्षुब्ध न होने वाले मन वाला,

२. सुख में संग रहित (और)

३. राग, भय और क्रोध रहित,

४. स्थितधी, स्थित प्रज्ञ मुनि कहलाता है।

तत्व विस्तार :

फिर मन की ही बात कह रहे हैं भगवान, फिर मनो स्थिति की बात कहते हैं।

‘साधना’ मन को होता है या सत् पथ पर लाना मन को होता है। साधना का राज़ पुन: कहते हैं। वास्तव में जो सब कह आये हैं उसी को यहाँ पुन: बता रहे हैं कि मनोवृत्ति निरुद्ध करोगे तो बाकी शुद्ध बुद्धि रह जायेगी। अब पुन: यहाँ कहते हैं कि:

दु:ख रहित :

1. विपरीतता, जो दु:ख देती है, अरुचिकर जो दु:ख देता है, उसे देख कर, उसे पाकर जिसका मन :

क) पीड़ित नहीं होता,

ख) दु:खी नहीं होता,

ग) शोक ग्रस्त नहीं होता,

घ) विक्षिप्त नहीं होता,

ङ) घबरा नहीं जाता,

च) ईर्ष्या, शत्रुता, द्वेष से नहीं भर जाता,

छ) दूसरे को बुरा जान कर अपना मुखड़ा वहाँ से फेर नहीं लेता,

यानि इन सबको पाकर वह क्षुब्ध नहीं हो जाता।

सुख जो मिले जीवन में वह :

1. संग रहित ही रहता है।

2. सुख देने वाले विषय के प्रति संग नहीं उठ आता उसका।

3. लोलुप्त नयन से नहीं देखता वह सुख देने वाले विषय को।

4. ‘कबहुँ न बिछुड़े यह सुख हमसे’, ऐसे भाव में वह नहीं रहता।

5. सुख की भी तृष्णा वह नहीं करता।

राग रहित अर्थात् रुचिकर से संग रहित होता है। भय रहित है वह! अब किसका भय उसको हो सकता है जीवन में?

क) क्या बिछुड़े या मिले तन को, अब उसका तो कोई तन ही नहीं।

ख) तन ही उसका नहीं रहा तो सुख दु:ख भी उसके नहीं रहते।

ग) मृत्यु भय भी चला गया क्योंकि तन से नाता ही नहीं रहा।

घ) भय तन के कारण होता है, अब भय का कारण ही मिट गया। भय अब किस कारण करें जब भय का मूल ही मिट गया?

क्रोध रहित :

क्रोध भी अब नहीं आता उसे :

1. रुचिकर न मिले, तब क्रोध आता है। जब रुचि अरुचि से ही संग नहीं रहा, तो क्रोध कैसा?

2. अरुचिकर मिले तो क्रोध आता है, अब वह बात ही नहीं रही।

3. कुछ पाना हो और न मिले तो क्रोध आता है, पर अब कुछ पाना ही नहीं रहा।

4. वाद विवाद में पड़ जायें और फिर जीत न सकें तो क्रोध आता है, अब अपनी बात ही नहीं रही।

5. अपनी बात समझा न सकें तो क्रोध आता है, पर अब कोई समझे या न समझे, कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता।

6. कोई न्यून कह दे तो क्रोध आता है, अब न्यून श्रेष्ठ तन के साथ ही चले गये।

7. जब न्यूनता अपनी छिपा न सकें तो क्रोध आता है, अब वह बात गई।

8. स्वयं निर्बल हों तो क्रोध आता है, अब बल तथा निर्बलता भी तन के साथ चले गये।

9. जब मान जाये तो क्रोध आता है, तन ही अपना चला गया, अब क्रोध कौन किस पर करे?

भगवान कहते हैं, ‘जो दु:ख से क्षुब्ध नहीं हों, सुखों से संग न करें और राग, भय और क्रोध रहित हों, वह मुनिगण स्थित बुद्धि कहलाते हैं।’

नन्हीं! इसे फिर से समझ ले !

जो तनत्व भाव के त्याग के प्रयत्न कर रहे हैं, वह इन गुणों से परे होते हैं। तनत्व भाव के अभाव का अभ्यास भी जीवन में तनत्व भाव के अभाव को मानते हैं। राग द्वेष के अभाव का अभ्यास भी जीवन में राग द्वेष को छोड़ने में है। लक्ष्य का अभ्यास ही साधक को उसके लक्ष्य में स्थित करवा देता है।

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