अध्याय २
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।५४।।
अर्जुन ने भगवान से आत्मवान् तथा अचल समाधि में स्थित बुद्धि की बातें सुनी और यह भी सुना कि अचल समाधि के पश्चात् वह योग में स्थित हो जायेगा। इस कारण उसके मन में स्थित प्रज्ञ के चिह्न जानने की चाहना उत्पन्न हो गई और वह भगवान से पूछने लगे :
शब्दार्थ :
१. हे केशव!
२. समाधि स्थित तथा स्थित प्रज्ञ पुरुष के क्या लक्षण हैं?
३. स्थित बुद्धि वाला पुरुष,
४. कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे विचरता है?
तत्व विस्तार :
देख नन्हीं! ध्यान से देख!
अर्जुन समाधि में स्थित की बातें पूछ रहे हैं। वह नित्य समाधि स्थित, स्थित प्रज्ञ की बातें पूछ रहे हैं। वह पूछते हैं, ‘हे कृष्ण! ये समाधि स्थित लोग, जो स्थित प्रज्ञ होते हैं ये :
1. कैसे बोलते हैं?
2. कैसे बैठते हैं?
3. कैसे चलते हैं?’
इसे ध्यान से समझ!
अर्जुन की प्रचलित मान्यता के अनुसार आसन लगा कर ध्यान मग्न होकर जो बैठ जाते हैं, उन्हें ही वह समाधि स्थित समझते होंगे। अर्जुन को मानो भगवान की बात समझ नहीं आई।
एक ओर भगवान अर्जुन को युद्ध करने के लिये कहते हैं, दूसरी ओर उसे बता रहे हैं कि योग में स्थित कैसे होना है, फिर वह समाधि की बातें करते हैं। उन सबका मिलन कैसे हो?
समाधि स्थित भी हो, आत्मवान् योग स्थित भी हो, स्थित प्रज्ञ भी हो, युद्ध भी करे और उसे पाप भी न लगे, वह कर्म बन्धन से मुक्त भी हो जाये, इन सब बातों का समन्वय कैसे हो? इन सब बातों के विरोध का अभाव कैसे हो? इन सब बातों का मिलन कैसे हो?
इस कारण भगवान से अर्जुन पूछते हैं कि :
समाधिस्थ कैसे बोलते हैं?
समाधिस्थ कैसे बैठते हैं?
समाधिस्थ कैसे चलते फिरते हैं?
नन्हीं! जो लोग एकान्त में मौन बैठ कर दुनिया को भूल जाने को समाधि मानते हैं उनके लिये यह सब बातें विरोधात्मक सी दिखती हैं। वे समझते हैं कि :
1. समाधि में चलना फिरना, बोलना, काम करना इत्यादि ये सब क्रियायें नहीं हो सकतीं।
2. अध्यात्म में तथा समाधि में स्थित लोग युद्ध नहीं कर सकते।
3. आत्मा में तथा योग में स्थित लोग कोई काम नहीं कर सकते।
4. जिन कर्मों को संसार ग़लत कहता है, आत्मा में योग स्थित वह कर्म नहीं कर सकते।
परन्तु यह केवल मिथ्या भ्रम है। भगवान ने कहा :
1. ‘आत्मवान् योगी कर्मों में कुशल और दक्ष होते हैं।’ (2/50)
2. ‘बुद्धि युक्त योगी पाप पुण्य से परे होते हैं।’ (2/50)
3. ‘तू योग में स्थित होकर कर्म कर!’ (2/48)
4. ‘यदि तेरी बुद्धि मोह से तर जायेगी तो तू सुने हुए और सुनने योग्य से नित्य अप्रभावित रहेगा।’ अर्थात् जब तेरी बुद्धि सुने हुए श्रुति प्रतिपादित ज्ञान से भी अप्रभावित होगी, तब तू अचल बुद्धि को पायेगा। (2/52)
इन सबसे पता लगता है कि :
क) यह समाधिस्थ कर्म भी करता होगा।
ख) यह समाधिस्थ पाप और पुण्य भी करता होगा।
ग) यह समाधिस्थ बातें भी सुनता होगा।
घ) यह समाधिस्थ श्रुति और विप्रति से भी अप्रभावित होगा।
यह बात अर्जुन को अजीब लगी। इस कारण उसने पूछा कि समाधिस्थ यदि ये सब कुछ करते हैं तो कैसे करते हैं? आप उनके चिह्न तो बताईये।