Chapter 2 Shloka 50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।।५०।।

One endowed with the intellect of equanimity

transcends sin and virtue in this very world.

Therefore strive to attain Yoga.

Yoga ensures skill in action.

Chapter 2 Shloka 50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।।५०।।

One endowed with the intellect of equanimity transcends sin and virtue in this very world. Therefore strive to attain Yoga. Yoga ensures skill in action.

Transcending sin and virtue

1. The Atmavaan transcends both meritorious and sinful actions.

2. When he is established in Truth, he no longer claims the body as his own and is therefore no longer afflicted by doership.

3. He possesses no attribute as such.

4. How can one, who knows that he is not the body, own its actions?

5. When the ego is no more, how can he take pride in his qualities?

6. If he cannot claim ownership of the body, how can he accept the ownership of actions – whether sinful or meritorious?

Because he:

a) knows that the Atma is never born therefore he knows ‘I am not born’;

b) sees the game of the mind, but believes ‘No action is mine’.

1. His external deeds and pattern of functioning keep changing in accordance with the situation.

2. He ‘possesses’ no form or name as such.

3. It was the ego, in connection with the mind, which claimed ‘I am this’ or ‘I am that’.

4. However the Atmavaan is ever silent towards his physical being.

Actions of a Yogi

The Lord therefore enjoins, ‘Endeavour to attain this Yoga’. Then speaking of one who is established in this Yoga, He says:

1. His concern with the fruit of action will be in ratio to his progress in the Yoga of equanimity.

2. With the lessening of the belief ‘I am the body’ such a one offers all his deeds at the feet of the Lord, without any bodily considerations.

3. With his concentration focused on the Supreme, he will perform all actions with shrewdness and resourcefulness.

4. When no desire remains for the fruit of action, then every deed is performed as a furtherance to sadhana or spiritual endeavour.

5. When the mind is no longer a hindrance in the path, his deeds will necessarily be virtuous.

6. Whatever task is placed before him, he applies himself fully to it, using the resources at hand – unmindful of any repercussions on the body.

7. Since there is no other object in view, his attention to the task at hand is total and complete.

8. He will automatically become competent and skilled in action.

9. Since he places himself at the service of all, he has to put his hand to varied tasks and inevitably gains excellence in action.

Little one! This is the simplest path to becoming an Atmavaan! Attain supremacy of the intellect on the one hand, and gain conviction in the fact ‘I am not the body – I am the Atma’; then engage yourself in selfless action for the benefit of others with all the shrewdness and skill at your command.

अध्याय २

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।।५०।।

शब्दार्थ :

१. जो बुद्धि युक्त हो जाये,

२. वह पुरुष इस लोक में ही पाप पुण्य त्यज देता है,

३. इसलिये तू योग की प्राप्ति के लिये चेष्टा कर,

४. योग से कर्मों में कुशल हो जाता है।

तत्व विस्तार :

पाप पुण्य त्यज देता है :

1. जब आत्मवान् हो जाये तब वह पाप पुण्य त्यज देता है।

2. स्वरूप स्थित जब हो गया, तन ही उसका नहीं रहा तब कर्तृत्व भाव भी नहीं रहता।

3. कोई गुण उसका नहीं रहता।

4. जो तन को नहीं अपनाता, तनो कर्म को वह अपना कैसे कहे?

5. अहंकार ही जब मिट गया तो गुणों का गुमान कैसे करें?

6. तन पाप पुण्य जो भी करता है, वह उसे अपनाता ही नहीं।

7. जब तन से ही संग न कर पाये तो कर्म कौन अपनायेगा?

क) क्योंकि वह जानता है कि आत्मा का जन्म नहीं होता इसलिये वह यह जानता है कि मेरा कोई जन्म नहीं।

ख) वह मनो खेल सामने देख रहा है पर ‘मेरा कोई कर्म नहीं’, ऐसा वह मानता है।

1. परिस्थिति अनुकूल वह नित्य ही रूप बदलता रहता है।

2. कोई रूप उसका नहीं होता।

3. न कोई नाम ही उसका रहता है।

4. ‘मैं यह हूँ’ ‘मैं वह हूँ’ यह सब संगी अहं ही कहता था और मन के नाते कहता था।

5. आत्म स्वरूप और आत्मवान् अपने तन के प्रति नित्य मौन ही रहता है।

योगी के कर्म :

इस कारण वह कहते हैं उस योग की चेष्टा करो। फिर योग स्थित की कहते हुए बताते हैं कि :

1. जितना समत्व योग होगा, उतना ही कर्म परिणाम से वह नहीं डरेंगे।

2. जितना ही तनत्व भाव कम होगा तब सब कर्म भगवान के लिये करेंगे।

3. ध्यान परम में टिका होगा तब सब कर्म दक्षता से ही करेंगे।

4. ‘मैं तन नहीं’ यह मान रहे होंगे तो तन की परवाह किये बिना सब काज कर्म करेंगे।

5. फल की चाहना नहीं होगी तो साधना समझ कर ही सब काज करेंगे।

6. जब मन राह में विघ्न नहीं बनेगा, तब कर्म अच्छे ही होंगे।

7. जो भी काज सामने हो, वह उसके लिये अपनी जान लड़ा देंगे।

8. बिना ध्यान करे कि वह जियेंगे या मरेंगे, वह अपना सब कुछ लगा देंगे।

9. यदि अन्य ध्यान कोई होगा नहीं तो काज पर पूरा ध्यान लग जायेगा।

10. कार्य निपुण, कर्म कुशल वह स्वत: ही हो जायेंगे।

11. उनको विभिन्न कर्मों का अभ्यास होता ही रहेगा।

12. क्योंकि भिन्न भिन्न काज लोग उन्हें देते ही रहेंगे, इस कारण वह बहु विधि कार्य कर्म में दक्ष हो जायेंगे।

नन्हीं! जब बुद्धि का योग आत्मा से होने लगता है, उसका प्रमाण यह है कि वह कर्मों में कुशलता पाने लग जाता है। आत्मवान् बनने की यही सहज विधि कही है।

एक ओर से बुद्धि बढ़ाते जाओ और अपने को मनाते व समझाते जाओ कि आप तन नहीं हो, आत्मा हो और दूसरी ओर से अपने तन को दूसरों के काज में निष्काम भाव से दक्षता तथा कुशलता पूर्वक लगाते जाओ।

Copyright © 2024, Arpana Trust
Site   designed  , developed   &   maintained   by   www.mindmyweb.com .
image01