Chapter 2 Shloka 48

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।

The Lord now says to Arjuna:

O Dhananjaya! Act without attachment,

established in yoga and maintaining equanimity

towards success or failure.

Equanimity is yoga.

Chapter 2 Shloka 48

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।

The Lord now says to Arjuna:

O Dhananjaya! Act without attachment, established in yoga and maintaining equanimity towards success or failure. Equanimity is yoga.

Equanimity

When will equanimity in success or failure be achieved?

1. When your attachment with the body is severed;

2. When the desire for self establishment ceases;

3. When attachment with the mind is destroyed;

4. When fame or censure, victory or defeat no longer matter;

5. When the mind cannot hamper you;

6. When ego does not remain;

7. When you no longer seek anything from the world;

8. When you no longer remember yourself;

9. When you are indeed devoid of name and form.

Then you will become an Atmavaan – you will be established in your true essence – you will become the embodiment of the knowledge you have imbibed. Then you will have attained the attitude of equanimity.

Yoga

1. Yoga is union.

2. Yoga connotes complete mergence without any distinction of ‘I’ or ‘you’.

3. When no variance remains between one’s goal and oneself, Yoga is achieved.

4. The Yogi thus becomes an image of the knowledge imparted by the Lord.

a) When one’s relationship with the body is severed, of what consequence are success and failure?

b) When all ties with the mind are broken, then who remains attached to success – to whom would respect or disrespect matter?

c) When nothing belongs to you, attachment is meaningless.

d) When intellectual pride is subdued, then how does it matter if no body pays any heed to what you say?

When his own reason for living ceases – his body ceases to be his goal – then such a one no longer ‘lives’ at the personal, individual level. For whom would he then seek the fruit of his deeds? Such a one has forgotten his individual entity and his bodily attachment and merges in the Supreme. His identification is no longer with the body but with the Atma. He severs his relationship with the gross and identifies with Supreme Consciousness.

When the person thus loses himself in the Atma, he is established in equanimity towards the world. He then ceases to take cognisance of anything that happens to him personally; he transcends duality.

अध्याय २

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।

कृष्ण कहते हैं अर्जुन!

शब्दार्थ :

१. संग छोड़ कर,

२. योग में स्थित होकर,

३. सिद्धि असिद्धि में सम होकर,

४. तू कर्म कर,

५. समता को ही योग कहते हैं।

तत्व विस्तार :

समत्व भाव :

सिद्धि असिद्धि में समता कब आयेगी?

1. जब तन से संग ही नहीं रहेगा,

2. जब तनत्व भाव ही नहीं रहेगा,

3. जब तेरा तन संग ही नहीं करेगा,

4. जब तेरी तनो स्थापना की चाहना ही नहीं रहेगी,

5. जब मन से संग ही नहीं रहेगा,

6. जब तेरे मान अपमान की बात ही मिट जायेगी,

7. जब विजय पराजय के प्रहार तुझ पर घात न कर सकेंगे,

8. जब मन तुझे राहों में रोक न सकेगा,

9. जब अहंकार ही नहीं रहेगा,

10. जब कोई पुकार ही नहीं रहेगी,

11. जब कोई चाह ही नहीं रहेगी,

12. जब जग से कोई प्रयोजन नहीं रहेगा,

13. जब अपनी याद ही नहीं रहेगी,

14. जब तू आत्मवान् हो जायेगा,

15. जब तू स्वरूप स्थित हो जायेगा,

16. जब तू निज नाम और रूप से रहित हो जायेगा,

17. जो भी ज्ञान पाया है, जब तू उसका स्वरूप ही हो जायेगा,

तो समत्व भाव में आ ही जायेगा।

योग :

1. मिलन को योग कहते हैं।

2. एक रूप जब हो जाये, उसे योग कहते हैं।

3. जब ‘मैं’ ‘तू’ का भेद नहीं रहे तो उसे योग कहते हैं।

4. जब अपने साध्य से कुछ भी पृथक्ता नहीं रहे तो उसे योग कहते हैं।

5. ज्ञान दिया जो श्याम ने, उसकी प्रतिमा जब हो जायें, उसे योग कहते हैं।

क) जब तूने तन से नाता ही छोड़ दिया सिद्धि असिद्धि फिर किसकी हुई?

ख) मन ही जिस पल नहीं रहा, तब सिद्धि से संग कौन करेगा?

ग) जब तेरा कुछ भी नहीं रहा, तू किससे, कैसे संग करेगा?

घ) जब मन से संग ही नहीं रहा, तब मान अपमान किसका हुआ?

ङ) बुद्धि गुमान जब चला गया, तब तुम्हारी कोई न माने तो क्या हुआ?

जीवन में अपना उद्देश्य गया, फिर कर्मफल तो दूर रहा, मानो वह जीना ही भूल गया यानि व्यक्तिगत जीवन ही भूल चुका है, क्योंकि वह तनत्व भाव से दूर हो गया है। यही परम योग की स्थिति है। उसकी तद्रूपता अब तन से नहीं रही, अब उसकी तद्रूपता मानो आत्मा से हो गई। उसने जड़ से नाता तोड़ कर मानो चेतन तत्व से नाता जोड़ दिया।

जब जीव आत्मा में खो जाता है तब वह अपने तन तथा संसार के प्रति समभाव में स्थित हो जाता है। फिर उसे परवाह नहीं होती कि उसके तन को क्या मिला, या क्या नहीं मिला। वह द्वन्द्वों के प्रति उदासीन होता है।

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