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Chapter 2 Shloka 45
त्रैगुणयविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।४५।।
The Lord continues:
The Vedas deal with the evolutes of the three gunas.
O Arjuna! Rise above the three gunas and duality!
Be steadfast in Truth and unconcerned about
the preservation or fulfilment of wants and desires;
abide in the Self.
Chapter 2 Shloka 45
त्रैगुणयविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।४५।।
The Lord continues:
The Vedas deal with the evolutes of the three gunas. O Arjuna! Rise above the three gunas and duality! Be steadfast in Truth and unconcerned about the preservation or fulfilment of wants and desires; abide in the Self.
Vedas
1. The Vedas are knowledge;
2. They can be said to be the intellect or understanding;
3. They can also be taken to mean direct knowledge;
4. The act of experiencing is also called Veda;
5. The wise, the learned, the pandits are also called ‘Veda’.
a) The Lord clarifies that the Vedas speak of the evolutes of the three gunas.
b) In fact all knowledge is constituted of the three gunas.
c) All objects are constituted of the three gunas.
d) All forms and shapes are constituted of the three gunas.
e) Words and sentences speak of objects and are therefore also moulded by those three qualities.
f) Thoughts and impressions that dwell upon such objects are also based on these three gunas.
g) The entire universe, the body, mind, intellect and knowledge are all coloured by the three gunas.
Little one! It is only the Atma which is not constituted of, nor touched by the three gunas.
1. The Atma is not an object of knowledge;
2. It is not a subject that can be encompassed by the intellect;
3. It cannot be defined by words;
4. It is not an object of the mind.
All objects are wrought by the three gunas – that which is not an object, is devoid of these three attributes. Even the Vedas are unable to bind the Atma in words. One can become an Atmavaan, but one cannot describe that state. The Atmavaan is attributeless; he is the Lord of the gunas; he manifests and yet he has transcended the qualities. Indeed, it is very difficult to understand him.
The Lord directs Arjuna, “Be thou a Nistraiguni! Rise beyond duality! Be steadfast in Truth! Be niryogkshema! Be an Atmavaan.”
1. Nistraiguni (निस्त्रैगुणी)
– One who is uninfluenced by the three gunas;
– One who has transcended his own qualities and the qualities of others;
– One who has no attachment with any quality;
– One who is untouched by sattva, rajas and tamas;
– One who is detached from the divine as well as the demoniacal qualities.
2. Nirdvandva (निर्द्वन्द्व)
Dvandva connotes duality: two opposing states, two opposite sentiments, two opposite gunas. A Nirdvandva is one who is unattached to both – who is unaffected by either.
– One who is unaffected by joy and sorrow;
– One who is untouched by raag and dvesh – likes and dislikes;
– One who has transcended both victory and defeat, laughter and grief.
3. Nitya Sattva Sthit (नित्य सत्त्व स्थित)
– One who is firmly entrenched in the eternal principles of Truth;
– One whose actions are in accordance with dharma;
– One who lives by the highest code of conduct;
– Who abides in the qualities of the Supreme;
– He who dwells in selflessness and performs actions for universal benefit;
– One who performs meritorious deeds and dispenses all duties in the spirit of yagya;
– He who practises the eternal qualities of Truth – forgiveness, compassion, patience and forbearance.
4. NirYogakshema (निर्योगक्षेम)
‘Yoga’ here means a desire to attain the unattained.
‘Kshema’ means to protect the object obtained.
– ‘I want this’ – this thought should not be there.
– ‘I will get this’ – this feeling should not arise.
– One must not be controlled by any desire or craving.
– Nor should one continually endeavour to protect an object.
5. Atmavaan (आत्मवान्)
– Little one! He who is nistraiguni will inevitably be untouched by the three gunas – he will be a gunatit.
– He who is a gunatit and nirdvandva will never be swayed by the mind.
– He who is not concerned with Yogakshema, will necessarily be untouched by objects of the world.
He will have no attachment with his body or his gunas. He will be an Atmavaan who has transcended the body idea. Realising that he is not the body, such a one will abide in his real Self – the Atma. Thus he will be beyond the duality of fame and censure, joy and sorrow. He will be unconcerned whether the body gets something or not. He will be detached from his own attributes and the qualities of others. He will be unmindful of the rank and status of the body and the type of work he has to do.
In other words, it could be said, that he who has renounced the body idea will necessarily be an Atmavaan. The Lord here enjoins Arjuna, “Be thou an Atmavaan.”
अध्याय २
त्रैगुणयविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।४५।।
अब भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. वेदों के सम्पूर्ण विषय त्रिगुणमय हैं,
२. हे अर्जुन! तू त्रैगुण से उठ,
३. निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व स्थित,
४. निर्योगक्षेम और आत्मवान् बन।
तत्व विस्तार :
वेद ज्ञान रूप विषय ही है।
पहले वेद का अर्थ समझ ले!
1. वेद ज्ञान को कहते हैं।
2. वेद बुद्धि को भी कहते हैं।
3. वेद समझ को भी कहते हैं।
4. प्रत्यक्ष ज्ञान को भी वेद कहते हैं।
5. अनुभव करने को भी वेद कहते हैं।
6. विद्वान् को भी वेद कहते हैं।
7. बुद्धिमान् को भी वेद कहते हैं।
8. पण्डितगण को भी वेद कहते हैं।
भगवान यहाँ कह रहे हैं कि वेद का विषय :
क) त्रिगुणात्मक होता है।
ख) जितना ज्ञान जहाँ भी है, वह त्रैगुण पूर्ण ही है।
ग) जितने विषय जहाँ भी हैं, वे त्रैगुण पूर्ण ही हैं।
घ) जितने रूप जहाँ भी हैं, वे त्रैगुण पूर्ण ही हैं।
ङ) शब्द विषयों की ही बात कर सकते हैं, सो ये त्रैगुण पूर्ण ही हैं।
च) वाक्य विषयों की ही बात कर सकते हैं, सो ये त्रैगुण पूर्ण ही हैं।
छ) भाव का रूप भी त्रिगुणमय होता है।
ज) पूर्ण जहान भी त्रिगुणमय होता है।
झ) तन भी तो त्रिगुणमय होता है।
ण) मन भी तो त्रिगुणमय होता है।
ट) बुद्धि भी तो त्रिगुणमय होती है।
ठ) ज्ञान भी तो त्रिगुणमय होता है।
नन्हीं! एक आत्मा ही है, जो न ही किसी गुण का विषय है और न ही उसे कोई गुण छू सकते हैं।
1. आत्मा ज्ञान का विषय नहीं।
2. आत्मा बुद्धि का विषय नहीं।
3. आत्मा शब्द बधित नहीं हो सकता।
4. आत्मा मन का विषय नहीं।
विषय त्रिगुणात्मक होते हैं। जो किसी का विषय नहीं, वह गुण रहित है।
वेद भी आत्मा को वाक् बधित नहीं कर सकते। आत्मवान् भी आत्मा को वाक् बधित नहीं कर सकते। आत्मवान् बन सकते हैं किन्तु वह क्या है, कह नहीं सकते। आत्मवान्, निर्गुणी, गुणातीत, गुणपति तथा अखिल गुणी होते हैं, इन्हें समझना अतीव कठिन है।
भगवान यहाँ अर्जुन से कहते हैं, कि हे अर्जुन! तू
क) निस्त्रैगुण बन,
ख) निर्द्वन्द्व बन,
ग) नित्य सत्त्व स्थित हो,
घ) निर्योगक्षेम हो,
ङ) आत्मवान् बन।
क) निस्त्रैगुणी :
1. त्रैगुण से अप्रभावित, गुणातीत,
2. अपने गुणों से अप्रभावित,
3. दूसरे के गुणों से अप्रभावित,
4. जिसे गुणों से संग न हो,
5. जो सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों के प्रति उदासीन हो,
6. जो आसुरी गुणों और दैवी गुणों के प्रति भी उदासीन हो।
ख) निर्द्वन्द्व :
दो विरोधी अवस्थाओं को, दो विरोधी भावनाओं को, दो विरोधी गुणों को द्वन्द्वपूर्ण कहते हैं।
निर्द्वन्द्व वह होगा – जो दो विरोधी भावों के प्रति उदासीन होगा, जो दो विरोधी गुणों से नित्य अप्रभावित रहेगा।
1. जो सुख दु:ख से नित्य अप्रभावित हो।
2. जो राग द्वेष से नित्य अप्रभावित हो।
3. जो हर्ष विषाद से नित्य अप्रभावित हो।
4. जो विजय और पराजय से नित्य अप्रभावित हो।
ग) नित्य सत्त्व में स्थित, अर्थात् :
1. नित्य सिद्धान्तों पर स्थित रहने वाला,
2. नित्य धर्म के अनुकूल वर्तने वाला,
3. नित्य सर्वोत्तम भद्रता का अनुसेवन करने वाला,
4. नित्य परम गुण का सेवन करने वाला,
5. नित्य निष्काम भाव में रहने वाला,
6. सर्वभूत कल्याण करने वाला,
7. श्रेष्ठ कार्य करने वाला,
8. यज्ञमय जीवन बिताने वाला,
9. क्षमा, दया, धृत्ति, धैर्य पूर्ण, नित्य सत्त्व में स्थित रहने वाला।
घ) निर्योगक्षेम :
‘योग’ का यहाँ अर्थ है, अप्राप्त की प्राप्ति की चाहना करना और ‘क्षेम’ का यहाँ अर्थ है, प्राप्त वस्तु की रक्षा करना।
यानि :
1. ‘यह पाना है’, ऐसा भाव नहीं होना चाहिये,
2. ‘यह पाऊँगा’, ऐसा भाव नहीं होना चाहिये,
3. किसी कामना के वश में नहीं होना चाहिये,
4. नित्य किसी विषय के संरक्षण में नहीं लगे रहना चाहिये।
ङ) आत्मवान् :
1. मेरी नन्हीं लाडली! जो जीव निस्त्रैगुण होगा, वह गुणातीत होगा ही।
2. जो जीव गुणातीत होगा और निर्द्वन्द्व होगा, वह मन से अप्रभावित होगा ही।
3. और जो योग क्षेम की परवाह नहीं करेगा, वह विषयों के प्रति उदासीन होगा ही।
ऐसे जीव का अपने तन से संग नहीं होगा और अपने गुणों से संग नहीं होगा। वह तनत्व भाव के परे आत्मवान् होगा ही। यानि वह अपने आपको तन न मान कर आत्मा मानने वाला होगा। वह तन के मान अपमान रूपा द्वन्द्वों से परे होगा। वह सुख दु:ख रूपा द्वन्द्व से नित्य अप्रभावित रहेगा। तन को कुछ मिले न मिले, इसकी वह परवाह नहीं करेगा। लोगों के गुणों से वह नित्य अप्रभावित रहेगा। अपने भी तन के गुणों से संग न होने के कारण, वह उनसे भी अप्रभावित रहेगा। तन की स्थिति श्रेष्ठ है या न्यून काज में लगा हुआ है, इसकी ओर वह ध्यान ही नहीं देगा।
तो क्यों न कहें वह देहात्म बुद्धि त्यागी, आत्मवान् होगा ही! भगवान अर्जुन को आत्मवान् बनने का आदेश दे रहे हैं।