अध्याय २
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।३९।।
अब भगवान अर्जुन से कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. यह बुद्धि तुम्हारे लिये,
२. सांख्य के विषय में कही गई है,
३. अब योग के विषय में तू इसी को सुन,
४. जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू,
५. कर्म बंधन का त्याग कर देगा।
तत्व विस्तार :
भगवान अर्जुन से कहते हैं ‘तुम्हें सांख्य भाव तो मैंने संक्षेप में कह दिया, अब तुझे इसी ज्ञान में एकरूपता पाने की विधि कहता हूँ।’
नन्हीं! पुन: सुन ले, जो भगवान पहले कह कर आये हैं और जिसे वह सांख्य ज्ञान कह रहे हैं। उन्होंने कहा :
1. आत्मा अमर है।
2. आत्मा सर्व स्थित है।
3. आत्मा अजर, अविनाशी, अव्यय, नित्य, अजम, अप्रमेय, अचिन्त्य और अविकार्य है।
4. तन मृत्युधर्मा है।
5. जीवात्मा बार बार विभिन्न तनों को धारण करता है।
तत्पश्चात् भगवान ने अर्जुन को धर्म तथा अधर्म का विवेक दिया। फिर कहा गर युद्ध नहीं करेगा तो तुझे पाप लगेगा। अन्त में समझाया कि यदि सुख दु:ख, हानि, लाभ, हार जीत के प्रति सम भाव रख कर युद्ध करेगा, तो तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।
यह कह कर भगवान ने मानो यह कहा कि :
क) तू आत्मा है तन नहीं है। तू अमर है, तन तो नित्य जन्मते मरते हैं।
ख) गर तनत्व भाव त्याग कर युद्ध करेगा, तब तुझे पाप नहीं लगेगा, यानि गर तू तन की तद्रूपता छोड़ देगा और अपने आपको आत्म स्वरूप जान लेगा और मान लेगा, तब तू पाप विमुक्त हो जायेगा।
नन्हीं जान्! यदि तनत्व भाव ही नहीं रहे, तो :
1. तन को लाभ हुआ या हानि, इसकी परवाह नहीं रहती।
2. मान अपमान, हानि लाभ, सुख दु:ख सब स्पर्श मात्र रह जाते हैं।
3. जीत हार का भाव भी नहीं रहता। वह भी तन से ही सम्बन्धित है।
किन्तु यह सब बातें सुन कर भी जीव तनत्व भाव को त्याग नहीं सकता इसलिये अब भगवान अर्जुन से कहते हैं, ‘इस स्थिति में स्थित होने के लिये जैसी बुद्धि चाहिये, वह तुझे बताता हूँ।’
प्रथम तू योग का अर्थ समझ ले :
1. योग का अर्थ है मिलाप।
2. योग का अर्थ है एक रूपता।
3. योग का अर्थ है, जो आपको दूसरे के समान कर दे।
4. योग का अर्थ है, जो अविभाजनीय एक रूपता उत्पन्न कर दे।
यह तो योग का अन्तिम पड़ाव हुआ।
क) यानि, आत्मा से एकरूपता की प्राप्ति और आत्मवान् बन जाना ही परम सों योग है।
ख) पाताञ्जलि ऋषि चित्त वृत्ति निरोध को योग कहते हैं।
चित्त वृत्तियाँ ही तो :
1. बाह्य स्पर्श से उत्पन्न होकर चित्त को आवृत करती हैं।
2. तनत्व भाव का प्रमाण है।
3. जीव को दु:खी सुखी करती हैं।
4. जीव के आंतरिक अभिप्राय को छुपाये रखती हैं।
5. जीव के मन की आन्तरिक क्रिया को प्रेरित करती हैं और मन की आन्तरिक अवस्था का निरूपण करती हैं।
वृत्तियों का कार्य अपने वास्तविक अभिप्राय को छुपा कर रखना है। वृत्ति का अर्थ छुपाना, ढ़कना, गुप्त रखना, अनुरोध करना, निवेदन करना और याचना करना है। वृत्ति का अर्थ ‘घेर लेना’ या ‘लपेट लेना’ भी है। यह सब मन के अन्दर ही होता है। इन्हीं चित्त वृत्तियों राही जीव का मानसिक दृष्टिकोण बनता है। पाताञ्जलि ऋषि ने ठीक ही कहा है, ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ ‘यदि चित्त वृत्तियों का निरोध हो जाये, तब योग हो जाता है।’ यदि यह सब वृत्तियाँ नहीं रहें तो जीव आत्मवान् हो जाये। यदि उन सबका प्रभाव मिट जायेगा, तो परिणाम योग होगा।
अब भगवान कहते हैं, जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू इस योग को पा सकता है, जिसके परिणाम स्वरूप तू समदृष्टि हो जायेगा, तुझे उस बुद्धि की बताता हूँ। इससे तू योग स्थित, समभावी होकर कर्म बन्धनों को त्याग देगा। यानि, सब करता हुआ भी तू अकर्ता रहेगा। तेरे कर्तृत्व भाव का पूर्ण त्याग हो जायेगा।
नन्हीं! चित्त वृत्ति निरोध का सहज तरीका, भगवान में निरन्तर चित्त लगाये रखना है। बाकी भगवान स्वयं आगे बतायेंगे, ध्यान से सुन!