अध्याय २
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता:।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम्।।३६।।
फिर भगवान कहते हैं, हे अर्जुन!
शब्दार्थ :
१. और तेरे वैरी गण,
२. तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए,
३. बहुत सी न कहने योग्य बातें कहेंगे।
४. इससे बढ़ कर दु:ख क्या होगा?
तत्व विस्तार :
याद रहे! भगवान ने पहले कहा :
क) धर्मयुक्त युद्ध नहीं करेगा तो स्वधर्म खोकर पाप का भागी बनेगा; अपकीर्ति का भागी बनेगा।
ख) तुम्हारे अपने ही लोग, जो आज तुम्हें आदरणीय मानते हैं, वे ही तुम्हें तुच्छ मानेंगे।
अब कहते हैं :
1. तुम्हारा अहित चाहने वाले लोग तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए बहुत से न कहने वाले वाक्य भी कह देंगे। जितने मुँह उतनी बातें होंगी।
2. अहितकर लोग झूठ से तक्ल्लुफ़ नहीं करते, वे तो झूठ सच, जो कुछ भी तुम्हें लोगों की आँखों से गिरा दे, वे कह देते हैं।
3. तुम्हें कायर तो वे कहेंगे ही, साथ ही तुझे नपुंसक भी कहेंगे।
4. तुम क्षत्रियता पर कलंक हो, यह भी वे कहेंगे ही।
5. तुम भय के कारण रण से भाग गये, यह तो वे कहेंगे ही।
6. तुम मृत्यु भय के कारण रण से भाग गये हो, यह तो वे कहेंगे ही।
फिर वे और भी लाखों बातें बनायेंगे और तुम्हारा चरित्र भी कलंकित कर देंगे। इस सब को सहना तुम्हारे लिये मुश्किल होगा। तुम्हारे लिये इससे बढ़ कर और दु:ख भी क्या हो सकता है?
इस सबके प्रतिरूप में साधक की विचारधारा तथा प्रार्थना क्या होगी, नन्हीं! इसे भी समझ ले। साधक कहेगा :
क) भगवान! मुझे मान या अपमान की बातें क्यों कहते हो?
ख) तुम्हारा कहा मेरे लिये आदेश है, जो कहोगे सो ही करूँगा।
ग) मैं तुम्हारा चाकर हूँ, तुम्हारी स्थापना ही मेरे जीवन का केवल मात्र ध्येय है।
घ) तुम्हारे गुण स्थापन अर्थ यदि मैं अपना सर्वस्व भी लुटा सकूँ, तो भी कम होगा।
ङ) मेरे ठाकुर! गर तुम्हारी चाकरी में मुझ पर व्यभिचार का कलंक भी लग जाये, तो क्या हुआ?
च) जग की मान्यता या मेरी मान्यता मेरी राहों में नहीं आयेगी। जब मान्यता विरुद्ध जाऊँगा, तो लोग बातें बनायेंगे। किन्तु इन बातों से मुझे क्या लेना है? मान की चाहना जिसको है, वे चाहे मान का मान करे। हे राम! मुझे तो राम ही चाहिये। मान का मान अब कौन करे?
याद रहे नन्हीं प्रिय! भगवान पहले :
1. स्वरूप के विषय में कह कर आये हैं।
2. जन्म मरण का राज़ बता कर आये हैं।
3. तनो क्षणभंगुरता के विषय में भी समझा कर आये हैं।
4. जीवात्मा तथा आत्म तत्व के अमरत्व की भी कह कर आये हैं। उन्होंने बार बार अर्जुन से यही कहा कि वह युद्ध करे।
जब अर्जुन भगवान की बातें न समझे और न माने, तो भगवान ने अर्जुन से युद्ध कराने के लिये ज्ञान का विषय ही बदल दिया। कहीं भगवान का भक्त, अर्जुन, रण छोड़ कर भाग न जाये, इस कारण कृष्ण अर्जुन से मान, यश तथा कीर्ति की बातें करने लगे, जो अर्जुन को प्रिय थीं।
भगवान कभी लोक लाज का आसरा ले रहे हैं; कभी दुश्मनों के अपवाद की बातें करते हैं; कभी जन्म जन्म की अपकीर्ति की बातें कहते हैं, ताकि अर्जुन किसी विधि अपनी कायरता तथा शोक को छोड़ कर, धर्मयुद्ध में नियुक्त हो जाये। मानो भगवान अपने शिष्य को मना रहे हैं।