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Chapter 2 Shloka 34
अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।३४।।
Now Lord Krishna persuades Arjuna,
the scion of the highly respected Pandava family, saying,
“If you do not fight, you will incur sin.”
People will always speak ill of you;
for an honourable person, dishonour is worse than death.
Chapter 2 Shloka 34
अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।३४।।
Now Lord Krishna persuades Arjuna, the scion of the highly respected Pandava family, saying, “If you do not fight, you will incur sin.”
People will always speak ill of you; for an honourable person, dishonour is worse than death.
The Lord explains to Arjuna, “If you run away from the battlefield at this juncture, the world will criticise you and always talk disparagingly about you.” Dishonour is bound to come, for, one who flees the battlefield will be called:
a) a coward,
b) a weakling,
c) unmanly,
d) an enemy of dharma,
e) one who evades duty,
f) one who is afraid of tyrants.
Little one, listen carefully: the Lord says, “Your name will remain in disgrace for all eternity.” This was true, because Arjuna would be remembered as a coward for as long as Lord Krishna’s life story remained in the hearts of men. He would always be remembered as a sinner, on account of the increase in sin resulting from his withdrawal from the battle.
The Lord then tries to make Arjuna snap out of his depression and fight. He says, “For an honourable person, dishonour is worse than death.”
1. Arjuna was quite conscious of his status.
2. Arjuna took pride in his nobility.
3. He cared for his good reputation.
4. He did not want to let dishonour taint his good name.
5. Arjuna was running away from the battlefield using dharma as his pretext.
6. The sight of his grandsire and Guru had disturbed him.
7. Arjuna could not understand:
– What is the dharma of a sadhu?
– In what situation should even the godly embark on a war?
– When should a person break his attachment to his divine qualities and advance to annihilate the wicked?
– To follow the principles of dharma is not merely a personal matter, dharma has to be established in society also.
Little one, no matter what method one uses, a non-violent agitation, war or diplomacy, one must never let the Lord’s Name be besmirched. This is the dharma of each human being. Implied in the Lord’s Name are the attributes of the One who bears that Name. A true devotee is a servitor of His attributes – those who do not serve the divine qualities of the Lord, lead a life of adharma.
He who fights for the establishment of the Lord’s divine qualities is a veritable gyani bhakta – a devotee replete with supreme knowledge. Such a one grows in the image of his Beloved Lord, and the Lord’s very birth is for the establishment of dharma.
1. A sadhu’s dharma is to save the victims of tyranny.
2 A sadhu’s dharma is to protect the aggrieved.
3. A sadhu must relieve the suffering of those who are afflicted by sorrow, oppressed by the merciless and the egoistic.
4. He must wage war against the untrue and establish the Truth.
5. He must protect the reputation and honour of others.
If the sadhu does not adhere to these principles, he is not virtuous – he is degraded. He is not a follower of dharma but of adharma. He is worthy only of dishonour. The sadhu’s inability to follow this code of conduct leads to the destruction of dharma.
The Lord explains to Arjuna, “You are a follower of dharma, you possess divine qualities – if you do not fight this war of dharma, your honour and reputation will be reduced to dust.” Disgrace is tantamount to death for one who cherishes his reputation and noble name. Those who live for fame and prestige, die a veritable ‘death’ when they are subjected to disgrace and ignominy.
Little one! Even great souls and followers of dharma are afraid of dishonour. Even those who pride themselves on being great sanyasis are afraid of disgrace. This is why the Lord is telling Arjuna, that he will suffer infamy for all eternity if he does not fight.
Sadhak
A sadhak is not worried about fame or infamy. He does everything merely to discharge his duty towards the Truth. All his actions are based on this fervent desire. ‘This must be done’ – therefore he does it. The Lord Himself does everything for no other reason.
a) Honour or dishonour make no difference to the sadhak; his attachment is only to the Lord’s qualities.
b) A sadhak is ever busy in his effort to strengthen the divine qualities within himself.
c) He only seeks to do what the Lord would have done in his place. Thus, day and night, he seeks the Lord’s presence as his witness.
Remember little one, the sadhak or the devotee constantly practises divine qualities in his life and strives to annihilate the ego.
अध्याय २
अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।३४।।
अब भगवान कीर्तिवान तथा आदरणीय पाण्डु कुल श्रेष्ठ अर्जुन से कहते हैं, “यदि तू युद्ध नहीं करेगा, तब तुझे पाप लगेगा” और :
शब्दार्थ :
१. लोग तुम्हारी निरन्तर
२. अपकीर्ति भी करेंगे।
३. माननीय पुरुष की अकीर्ति
४. मरने से भी बढ़ कर होती है।
तत्व विस्तार :
अब भगवान अर्जुन को समझाते हैं कि यदि तू इस प्रकार रण से उपराम हो जायेगा तब सब जग वाले तुम्हारी निन्दा करेंगे और तुम्हारी अपकीर्ति का कथन ही होता रहेगा।
नन्हीं! अपकीर्ति होनी तो स्वाभाविक ही है, क्योंकि लोग रण से भागे हुए को,
क) कायर कहेंगे ही,
ख) डरपोक कहेंगे ही,
ग) नपुंसकता को प्राप्त हुआ कहेंगे ही,
घ) धर्म विरोधी कहेंगे ही,
ङ) कर्तव्य न करने वाला कहेंगे ही,
च) अत्याचारियों से डरने वाला कहेंगे ही।
ध्यान से देख नन्हीं जान्!
भगवान ने कहा ‘निरन्तर कहेंगे।’ उन्होंने कहा – “अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्” अर्थात् ‘शाश्वत काल तक तेरी निन्दा करेंगे। नित्य ही तेरी निन्दा करेंगे।’ यह बात तो उन्होंने ठीक ही कही। जब तक लोग भगवान कृष्ण की कहानी कहेंगे, तब तक अर्जुन को कायर कहेंगे, क्योंकि श्याम की कहानी में, अर्जुन का नाम आयेगा ही और युद्ध न करने के परिणाम रूप जो अधर्म बढ़ेगा, उसकी चर्चा भी होगी ही। ‘तब तू नित्य पापी कहलायेगा।’
फिर भगवान अर्जुन को शोक से निकालने के लिये और युद्ध के लिये उत्तेजित करने के लिये कहते हैं कि “माननीय पुरुष की अकीर्ति मरने से भी अधिक बुरी होती है।”
ध्यान से देख :
1. अभी अर्जुन को मान का काफ़ी ख़्याल था।
2. अभी अर्जुन को अपनी श्रेष्ठता पर काफ़ी मान और गुमान था।
3. अभी अर्जुन को अपने ‘अच्छे नाम’ का भी बहुत ध्यान था।
4. अर्जुन अपने ऊपर कलंक नहीं लगाना चाहते थे।
5. अर्जुन धर्म का आसरा लेकर रण से भागने लगे थे।
6. अर्जुन अपने गुरुजन तथा पितामह को देख कर विचलित हो गये थे।
7. अर्जुन को यह नहीं समझ आ रहा था कि :
क) साधु का धर्म क्या होता है?
ख) कहाँ पर देवताओं को भी युद्ध में प्रवृत्त होना चाहिये?
ग) दैवी सम्पदा से भी संग छोड़ कर कब इन्सान को दुष्टों के दमन के लिये प्रवृत हो जाना चाहिये?
घ) धर्म परायणता केवल अपनी ही बात नहीं। जग में भी धर्म स्थापित होना चाहिये।
नन्हीं! नीति चाहे जो भी इस्तेमाल करो, चाहे सत्याग्रह करो, चाहे युद्ध करो, चाहे कोई और नीति अपना लो, किन्तु भगवान के नाम पर आंच न लगने दो। यह हर जीव का धर्म है। भगवान के नाम के पीछे नामी के गुण होते हैं, सच्चे भक्त उन गुणों के चाकर होते हैं। जो उन गुणों के चाकर नहीं बनते, वे अधर्मी ही होते हैं।
भगवद् गुण की स्थापना के लिये जो लड़े, वही ज्ञानी भक्त होता है, क्योंकि वह तो भगवान के समान ही होता है और भगवान का जन्म धर्म की संस्थापना अर्थ ही होता है।
1. साधु का धर्म है अत्याचार से पीड़ित लोगों को बचाना।
2. साधु का धर्म है पाप से दु:खी जनता का संरक्षण करना।
3. साधु का धर्म है दु:ख, निष्ठुरता और अहंकार से पीड़ित और व्यथित लोगों का दु:ख हरना।
4. साधु का धर्म है असत् से युद्ध करना और सत् को स्थापित करना।
5. साधु का धर्म है औरों की मान तथा मर्यादा का संरक्षण करना।
यदि साधु यह नहीं करते, तो वे श्रेष्ठ नहीं, निकृष्ट हैं। वे धर्मयुक्त नहीं, धर्म विरोधी हैं। वह अपयश के ही पात्र हैं। यदि साधु यह नहीं करते, तो धर्म नष्ट हो जायेगा।
भगवान अर्जुन को भी यही समझा रहे हैं कि तू श्रेष्ठ है, धर्मात्मा है और दैवी सम्पदा पूर्ण है। यदि तू यह युद्ध नहीं करेगा, तो तुम्हारा यश और मान मिट्टी में मिल जायेगा। जिन लोगों को मान और प्रतिष्ठा प्रिय होते हैं, उनके लिये अपमान मृत्यु के समान होता है। जो लोग यश के लिये जीते हैं, उनके लिये अपयश मृत्यु के समान ही होता है। जो लोग कीर्ति के लिये जीते हैं, उनके लिये अपकीर्ति मृत्यु के समान होती है।
नन्हीं! बड़े बड़े धर्मात्मा लोग भी अपमान से डरते हैं। बड़े बड़े संन्यास के गुमानी भी अपमान से डरते हैं। इस कारण भगवान अर्जुन से कह रहे हैं तेरा अनन्त काल तक अपयश होगा, इसलिये भी तू युद्ध कर।
साधक :
श्रेष्ठ साधक मान अपमान की परवाह नहीं करते, वे तो केवल सत् के प्रति अपना कर्तव्य जान कर सब कुछ करते हैं। ‘करना ही है’ इस कारण वे करते हैं। भगवान स्वयं भी तो सब कुछ करते हैं।
क) साधक तो मानो कहते हैं मान मिले या अपमान मिले, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, उन्हें भागवद् गुणों से लग्न होती है।
ख) वे तो अपने में नित्य भागवद् गुण प्रतिष्ठित करने में लग जाते हैं।
ग) वे तो जीवन में वैसा ही करना चाहते हैं, जैसा उनके तन में भगवान होते तो करते। इसी कारण वह निरन्तर दिन रात अपने साथ भगवान के साक्षित्व की याचना करते हैं।
पर याद रहे नन्हीं! साधक या भक्त दैवी गुणों का अभ्यास करते हैं और अहं मिटाव के यत्न करते हैं।