अध्याय २
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।२६।।
जब भगवान ने देखा – अर्जुन तत्व ज्ञान की दृष्टि से आत्मा को नहीं समझा, तब उसे दूसरे दृष्टिकोण से समझाने लगे और कहने लगे :
शब्दार्थ :
१. और यदि तू इसको, (आत्मा को),
२. सदा जन्मने और सदा मरने वाला माने,
३. तो भी हे अर्जुन! तुझे ऐसा शोक करना उचित नहीं।
तत्व विस्तार :
नन्हीं लाडली! जब भगवान देखते हैं कि दूसरा उनकी बात नहीं समझ रहा तब वह परम गुरु शिष्य के बुद्धि स्तर पर आकर उसे समझाते हैं।
1. अर्जुन न तो आत्म तत्व की बात समझ सका और न ही जान सका।
2. अर्जुन में इतनी श्रद्धा ही नहीं थी कि ‘भगवान ने कहा है’, यह जान कर भगवान की बात मान ले।
3. शब्द ज्ञान तो थोड़ा समझ भी गया होगा, किन्तु जीवन में उसे ले आना अतीव कठिन है।
असल बात यह है नन्हीं! बुद्धि का गुमान रखने वाले लोग समझते हैं कि उनकी बुद्धि सब कुछ समझ सकती है। वे उस बात को मानते हैं जो उनकी बुद्धि में आ जाये, यानि :
क) जो वे समझ सकते हैं,
ख) जो उनके चिन्तन में आ जाये,
ग) जो वे प्रत्यक्ष सामने देख लें,
घ) जो शब्द बधित हो सके,
फिर उसे शायद मान भी लें।
किन्तु :
1. जिस अचिन्त्य तत्व का चिन्तन भी न कर सकें, उसे कैसे मान लें?
2. जिस अग्राह्य तत्व को ग्रहण ही न कर सकें, उसे कैसे मान लें?
3. जो नित्य अव्यक्त तत्व है, जिसका निश्चित रूप से निश्चय न किया जा सके, उसको कैसे जान लें?
4. जो अप्रमेय तत्व है, उसे कैसे मान लें?
5. जीव की सीमित बुद्धि असीम को कैसे जान सकती है?
फिर, जो बात या तत्व तुम अपने जीवन में न लाना चाहो, उसे समझना अतीव कठिन है।
क) ज्ञान, जो आप ही के जीवन में सिद्ध न हो, वह अज्ञान समान ही होता है।
ख) जिस ज्ञान का प्रयोग आप अपने जीवन में नहीं करते, वह ज्ञान शब्द ज्ञान ही रह जाता है।
ग) जिस ज्ञान को आप अपने जीवन में नहीं लाते, वह ज्ञान निष्प्राण तथा निस्तेज रह जाता है।
घ) यदि आप स्वयं ज्ञान की प्रतिमा बन जायें तो वह ज्ञान सतेज तथा सप्राण हो जाता है।
आत्म तत्व को समझने के लिये आत्मवान् बनना ज़रूरी है। आत्म तत्व समझ में आने की बात नहीं, आत्म तत्व में समाहित हुआ जा सकता है, यानि तनत्व भाव, कर्तृत्व भाव तथा भोक्तृत्व भाव त्याग किया जा सकता है। तत्पश्चात् की स्थिति का ब्यान नहीं किया जा सकता।
अर्जुन को भी यही मुश्किल पड़ी। वह आत्म तत्व को न समझ सका। इस कारण भगवान उसके दृष्टिकोण से कहने लगे कि अर्जुन! यदि तू मानता है कि आत्मा का नित्य जन्म होता है और आत्मा नित्य मरता है, तब भी तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं क्योंकि :
क) जन्म तो निश्चित होगा।
ख) मृत्यु तो निश्चित आयेगी।
जब मरना ही है तो शोक कैसा? जो तेरा कर्तव्य है, वह करता जा।
साधक! तू भी बुद्धि गुमान छोड़ दे और भगवान की कथनी मान ले। बुद्धि माने या न माने, इसकी परवाह न कर। साक्षात् भगवान कथन तू मान ले, भगवान तो सच ही कहते हैं। वह कहते हैं तू मन नहीं, तू बुद्धि नहीं है। देख तो ले!
1. साक्षात् परम पुरुष पुरुषोत्तम, भगवान स्वयं कह रहे हैं।
2. नित्य भगवद् तत्व, विज्ञान स्वरूप स्वयं कह रहे हैं।
3. नित्य प्रकाश, आत्म स्वरूप स्वयं कह रहे हैं।
4. नित्य अध्यात्म प्रकाश स्वरूप भगवान कृष्ण स्वयं कह रहे हैं।
5. नित्य अविनाशी, ज्ञान स्वरूप स्वयं कह रहे हैं।
6. विशुद्ध परमात्मा, आनन्द स्वरूप भगवान स्वयं कह रहे हैं।
7. परम ब्रह्म, अखण्ड तत्व, सत्त्व स्वरूप स्वयं कह रहे हैं।
8. निराकार, साकार रूप धर कर कह रहे हैं।
गर इनकी बात भी तू नहीं मानेगा तो फिर किसकी बात मान पायेगा? कृष्ण जैसा समझाने पुन: कौन आयेगा? इसलिये :
क) जो वह कहते हैं, मान ले।
ख) इस तन से नाता तोड़ दे।
ग) कुछ पल के लिये ही सही, जो वह कह रहे हैं, वही कर।
घ) आत्मा से नाता जोड़ ले और अपने आपको तन समझना बन्द कर दे।
भगवान को क्यों कहना पड़ा, ‘यदि तू मेरा कथन नहीं मानता, तो तुझे तुम्हारे ही दृष्टिकोण से समझाता हूँ?’
तुम भी भगवान को क्यों झुकाना चाहते हो? भगवान की बात को अक्षरश: सत् मान कर उसे जीवन में लाने के यत्न क्यों नहीं करते? इतना ही मान ले कि भगवान सत्य कहते हैं; भगवान गलत नहीं हो सकते; आपकी समझ में कमी हो सकती है, किन्तु भगवान की कथनी में कमी नहीं हो सकती। फिर समझ की कमी के भी तो अनेकों कारण हो सकते हैं, जैसे :
क) तनत्व भाव छोड़ते हुए डर लगता है।
ख) अपनापन छोड़ते हुए डर लगता है।
ग) अपनी मान्यताओं को छोड़ते हुए भी जीव को डर लगता है।
‘भाई! अपने आपको ही भूल जायें, तो फिर हमारा क्या होगा?’ ऐसे विचार मन में उठ आते हैं। इन्हीं कारणों से देहात्म बुद्धि युक्त जीव भगवान की बातें नहीं समझ सकता।
किन्तु नन्हीं! भगवान ने कहा है! जिन्हें आप भगवान मानते हो, उन्होंने कहा है! ज़रा सी हिम्मत की बात है, कोशिश करके तो देखो, शायद काम बन ही जाये।