अध्याय २
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।२२।।
भगवान् अब एक साधारण सा दृष्टान्त देकर पुन: जन्म मरण का राज़ कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर,
२. दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है,
३. वैसे ही, फटे पुराने शरीर को त्याग कर,
४. जीवात्मा दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।
तत्व विस्तार :
भगवान अर्जुन की व्याकुलता, शोक और भय को मिटाने के लिये कहते हैं :
1. तू जन्म मरण का भय न कर।
2. तू जन्म मरण के कारण घबरा नहीं।
3. तू जन्म मरण का ध्यान करके युद्ध से विमुक्त होने का यत्न न कर।
4. तू जन्म मरण का ध्यान करके अपने कर्तव्य से विमुख न हो; अपना धर्म न छोड़।
अनादि काल में एक जीवन के कुछ वर्ष क्या अर्थ रखते हैं? जीवात्मा अनेकों शरीर और अनेकों रूप धारण करता है। वह अनेकों नामों से पुकारा जाता है और अनेकों आर्थिक व्यवसायों को ग्रहण करता है। जीव अनेकों कुलों में जन्म लेता है।
भगवान कहते हैं कि ज्यों तुम लोग फटे पुराने कपड़े उतार कर नये कपड़े पहन लेते हो, उसी प्रकार जीवात्मा पुराना शरीर छोड़ कर नया शरीर ग्रहण कर लेता है।
शरीरों का परिवर्तन होता ही रहता है। आज नहीं तो कल, ये शरीर मरेंगे ही! तो इन शरीरों की मृत्यु से क्यों घबराता है? ये तो आने जाने ही होते हैं।
फिर सोच नन्हीं! पिछले जन्म में तू कौन थी, इससे आज तुझे क्या फ़र्क पड़ता है? तू अमीर थी या ग़रीब थी, तू बुरी थी या भली थी, तू उच्च पद वाली थी या चाकर थी, आज तुझे क्या फ़र्क पड़ता है? किन्तु आज तेरी दुनिया कैसी है, इसका तो तुझे फ़र्क पड़ता है।
यदि आपका जीवन कर्तव्य परायण होता, धर्म परायण होता, यदि सत्गुण को आपने जहान में स्थापित किया होता, तो मेरी जान्! यह दुनिया सुन्दर ही होती। भगवान कहते हैं इस दृष्टिकोण से भी देख ले, तो भी आततायियों से युद्ध करना उचित ही है। अन्यायी, पाप पूर्ण तथा लोभी गण तो अधर्म ही फैलायेंगे। गर राज्य करने वाले ही पतित लोग हों, तो जनता का पतन हो जायेगा।
इसलिये भगवान कहते हैं, ‘तू घबरा नहीं। उठ! युद्ध कर।’ नन्हीं! जैसा संसार छोड़ कर जाओगे, उसी में ही तो पुन: जन्म पाना है।
नन्हीं साधिका!
1. तू भी अपना कर्तव्य समझ ले।
2. तू भी अपने जीवन का धर्म समझ ले।
3. अपने कर्तव्य से विमुख होने के यत्न न कर।
4. ज्ञान को इतना विकृत न कर दे कि तू पंगु बन जाये।
5. ज्ञान के स्वरूप तथा रूप को समझ ले और उसे अपने जीवन में लाने के यत्न कर।
6. सत् पथिक जीवन से नहीं डरते।
7. सत् पथिक मृत्यु से नहीं डरते।
8. सत् पथिक दु:ख से नहीं डरते।
9. सत् पथिक अत्याचारी के अत्याचार से नहीं डरते।
10. सत् पथिक तो आन्तर बाह्य में नित्य सत् स्थापित करने में लगे रहते हैं।
11. वास्तव में आन्तरिक सत्यता का प्रमाण ही बाह्य असत् से युद्ध है।
12. देवत्व कभी असुरत्व के सामने नहीं झुकता।
13. देवता तो देवत्व के सामने झुकते हैं।
14. देवता कर्तव्य के सामने झुकते हैं।
15. देवता न्याय के चरण में झुकते हैं।
16. देवता प्रेम के चरण में झुकते हैं।
नन्हीं! कहते हैं, भगवान स्वयं भक्तों के पीछे पीछे चलते हैं।
तू यह भी जान कि आत्मा अजर अमर है और तू आत्मा है, तन नहीं है। इसलिये अपना भय छोड़ दे। आत्मा कपड़ों की तरह शरीरों को धारण करता है और कपड़ों की तरह शरीरों को बदलता है, यह जानकर तू शोक और क्षोभ को छोड़ दे।
नन्हीं! पहले जीवन में :
1. दैवी गुण आने अनिवार्य है।
2. झुकाव सीखना अनिवार्य है।
3. सहिष्णुता अनिवार्य है।
4. निरपेक्ष भाव में जीना अनिवार्य है।
5. बुरा भला, दोनों के प्रति समभाव होने का अभ्यास अनिवार्य है।
साधक के लिये युद्ध का प्रश्न बाद में उठता है, वरना हर बार भड़क कर औरों से भिड़ जाओगे। आपके भड़काव की बुनियाद अहंकार होगा, प्रेम नहीं। आपके भड़काव की बुनियाद क्रोध होगा, न्याय नहीं।