Chapter 2 Shloka 10

तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच:।।१०।।

Sanjay addresses Dhritrashtra thus:

O descendent of Bharat !

With chariot stationed between the two forces,

Lord Krishna smiled

and spoke thus to a distressed Arjuna.

Chapter 2 Shloka 10

तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच:।।१०।।

Sanjay addresses Dhritrashtra thus:

O descendent of Bharat! With chariot stationed between the two forces, Lord Krishna smiled and spoke thus to a distressed Arjuna.

Little one! Lord Krishna smiled at Arjuna’s piteous state; He had patiently heard Arjuna rambling in his ignorance and even ridiculing Him!

Arjuna had said:

a) “O Janardhana!” i.e. one who is used to killing people and destroying sinners; “What satisfaction shall we obtain by killing our enemies? We would only be incurring sin by doing so!”

b) He then called Him Madhusudan’ – the vanquisher of Madhu, the demon; and said, “I would not kill my relations even to obtain the kingdom of the three worlds.” Lord Krishna heard all silently and said nothing until Arjuna relinquished the Gandiva and became ready to flee from the war. Then he said, “Do not be a coward! Such behaviour does not behove you!”

c) Arjuna persisted, “O Arisudana, Killer of foes! How can I kill Bhishma Pitamah and Dronacharya even if they are presently my enemies!” The Lord smiled.

Little one! Watch the beauty of the Lord. He did not take any notice of the allegations and insinuations made by Arjuna. He did not even rebuke Arjuna. Arjuna did not seek Lord Krishna’s forgiveness for his insulting insinuations – yet, in Arjuna’s time of need, the Lord patiently began to explain the path of duty to him. Such is the relationship between a Guru like Lord Krishna and a disciple like Arjuna.

The Guru and the Shishya

1. The disciple is at liberty to say what he likes.

2. When the disciple is suffering from great anxiety he speaks out un-thinkingly, yet a Guru takes no cognisance of his outburst.

3. The Guru does not offer any knowledge without the shishya asking him.

4. The Guru is plain speaking about the Truth – as is the Lord.

5. It does not behove the Guru to support the shishya in his idiosyncrasies. Nor does he bother about the shishya’s displeasure or the world’s opinion.

6. He will speak out in favour of the truth and will even call his disciple a cheat if he is one, and will willingly take the consequences.

7. The true Guru will necessarily point out to his disciple where he is going wrong and is never afraid of using strong words in his effort to drive home the truth.

Little one! The true Guru, whether he be in a temple, mosque, church or gurudwara, will not support any misdeeds of the disciple. These places of worship are meant to show the devotee where he has lost the path and to lead him back towards the Truth. Here, too, the Lord is doing just that.

अध्याय २

तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच:।।१०।।

संजय कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. हे भरत कुल के (धृतराष्ट्र)!

२. हृषीकेश ने, (यानि भगवान कृष्ण ने,)

३. मानो मुसकराते हुए,

४. दोनों सेनाओं के बीच,

५. दु:खी खड़े हुए (अर्जुन को),

६. यह वचन कहा।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! भगवान अर्जुन की अवस्था देख कर हंसने लग गये। पहले तो :

1. अर्जुन इतनी देर अज्ञान भरी बातें कहता रहा और भगवान सुनते रहे।

2. इतनी देर अर्जुन भगवान का भी मानो उपहास करता रहा, तब भगवान चुप होकर सब सुनते रहे।

क) पहले तो अर्जुन के साथ भगवान स्वयं खड़े थे, उसे यह कहना ही नहीं चाहिये था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा। फिर अर्जुन ने कहा, ‘हे जनार्दन!’ यानि, ‘हे जनों का नाश करने वाले! हे जनों को पीड़ा देने वाले! हे पापियों का नाश करने वाले! हमें पापियों को मार कर क्या प्रसन्नता होगी? हमें पाप ही लगेगा।’ यानि, तुम तो मारते हो पर हम नहीं मारेंगे।

ख) ‘मधुसूदन’ कह कर पुकारा भगवान को। यानि ‘हे मधु नामक राक्षस को मारने वाले’ यह कह कर कहा कि, ‘मैं तो त्रिलोक के राज्य के लिये भी इन सब नाते रिश्तों को नहीं मारना चाहता।’

ग) फिर भगवान का कुल याद करा कर कहा कि ‘कुल नाश हो जाने से कुल धर्म मिट जाता है।’ भगवान सब कुछ सुनते रहे और तब तक कुछ नहीं बोले जब तक अर्जुन गाण्डीव छोड़ कर बैठ ही नहीं गया। तब भी भगवान ने इतना ही कहा कि, ‘कायर न बन, ऐसा व्यवहार तेरे योग्य नहीं।’ यानि रण से भाग जाना तुझे शोभा नहीं देता। उसके बाद भी अर्जुन ने कहा :

हे ‘अरिसूदन’! यानि, ‘हे दुश्मनों को मारने वाले, मैं भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के रूप में दुश्मनों को कैसे मारूँ?’

बाद में अर्जुन ही अपने ज्ञान से घबरा गये और किंकर्तव्य विमूढ़ होकर भगवान के चरणों में जा पड़े। तब भगवान मुसकरा दिये।

देख नन्हीं! भगवान की ओर देख!

1. अपने ऊपर जो प्रहार हुआ, वह भूल गये और मुसकरा दिये।

2. अर्जुन ने उनसे जो कहा, उसके बारे उन्होंने कुछ नहीं कहा।

3. अर्जुन के ताने मारने पर भी वह क्रोधित नहीं हुए।

4. भगवान रूठे भी नहीं अर्जुन से।

5. अर्जुन ने भगवान से क्षमा नहीं माँगी फिर भी भगवान मुसकरा दिये और अर्जुन को समझाने लगे।

यही नाता होता है गुरु शिष्य का।

गुरु शिष्य :

1. शिष्य को सब कुछ कहने की इजाज़त होनी चाहिये।

2. शिष्य जब घबरायेगा या तड़पेगा तो गुरु को भी बहुत बातें कह देगा। गुरु को उन पर ध्यान नहीं धरना चाहिये।

3. जब तक शिष्य स्वयं न पूछे, गुरु को नहीं बताना चाहिये।

4. गुरु को भगवान की भान्ति स्पष्टवादी होना चाहिये।

5. शिष्य की हाँ में हाँ मिलाना गुरु को शोभा नहीं देता।

6. कोई रूठ जायेगा, यह सोच कर स्पष्टवादिता छोड़ देना धर्माचार्य का धर्म एवं कर्तव्य नहीं।

7. लोग कलंक लगायेंगे, इसका ध्यान सत् पुरुष नहीं रखते।

8. चोर को चोर कहना ही सच्चे गुरु का काज है।

9. गुरु ने तो शिष्य को बताना है कि वह कहाँ ग़लत है और जब वह ग़लती बतायेगा तो अनेक बार लोग उससे रूठ जायेंगे और बातें बनायेंगे। सच्चे गुरु उत्तेजना पूर्ण बात से नहीं डरते, वह सच्ची बात कह देते हैं।

नन्हीं! गुरुजन तथा मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा इत्यादि साधकों के समर्थन के लिये नहीं होते। वह तो दुनियाँ को यह बताने के लिये होते हैं कि आप सत् का पथ कहाँ भूले हो? यानि आप कहाँ पर ग़लती कर रहे हो।

भगवान भी इस समय यही कह रहे हैं।

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