अध्याय २
संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परंतप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।
संजय कहते हैं धृतराष्ट्र से :
शब्दार्थ :
१. गुडाकेश परंतप अर्जुन ने,
२. हृषीकेश श्री कृष्ण से कहा,
३. “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा”
४. और ऐसा कह कर वह चुप हो गया।
तत्व विस्तार :
गुडाकेश : गुडा का ईश यानि :
क) नींद को वश में करने वाला,
ख) आलस्य से रहित,
ग) इन्द्रिय पति,
घ) इन्द्रिय थकान जिसके वश में हो।
परंतप :- (द्वितीयोऽध्याय:, श्लोक 3) महा तप करने वाला, शत्रुओं को सताने वाला।
हृषीकेश :- प्रथमोऽध्याय, श्लोक 15।
गोविन्द :- प्रथमोऽध्याय, श्लोक 32।
देख नन्हीं! अर्जुन ने क्या किया! एक ओर तो भगवान से कहा “मैं आपकी शरण पड़ा हूँ, मैं आपका शिष्य हूँ, आप मुझे शिक्षा दीजिये।” दूजी ओर कह दिया “मैं युद्ध नहीं करूँगा।” यानि इस युद्ध के अतिरिक्त जो कहोगे सो करूँगा।
साधक लोग भी यही करते हैं। अपने मन में निर्णय कर लेते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिये तथा कैसे वर्तना चाहिये, फिर :
1. ज्ञान के अर्थ भी अपने आप परिवर्तित कर देते हैं।
2. जग से हमें दूर होना है, यह पहले ही सोच लेते हैं।
3. हमने अपने घर में सम्पूर्ण कर्तव्यों तथा व्यक्तियों से दूर रहना है, यह पहले ही सोच लेते हैं तत्पश्चात् शास्त्र पठन आरम्भ करते हैं।
तभी तो निहित तत्व सार से वंचित रह जाते हैं। अर्जुन ने मानो अपने मन और चाहना का प्रतिबन्ध पहले ही लगा दिया। मनचाही शर्त पहले ही लगा दी और अपना दृढ़ निर्णय पहले ही सुना दिया।
अर्जुन कहने लगे – ‘मैं जानता हूँ मैंने क्या करना है, सो तो मैं करूँगा ही, पर हे भगवान आगे कहो मैं क्या करूँ?’
यह सब मोह के कारण हुआ। मोह के कारण ही बुद्धि भी भरमा गई।
साधक भी यही ग़लती करते हैं।
1. कहते तो हैं ‘भगवान! मैं तुम्हारी शरण पड़ता हूँ’ लेकिन भगवान की बातों को जीवन में नहीं मानते।
2. कहते हैं, ‘भगवान! तू मुझे ज्ञान समझा दे, जो तू कहेगा, मैं वही करूँगा’, परन्तु वह समझना भी नहीं चाहते।
3. और फिर जो समझ भी लेते हैं, उस ज्ञान को विज्ञान रूप में अनुभव करके जीवन में लाने के यत्न ही नहीं करते।
नन्हीं! भगवान से अपनी लाज का संरक्षण कभी मत माँगना, भगवान से बस इतनी प्रार्थना करना :
क) ‘मैं तुम पर कभी कलंक न बनूँ।’
ख) ‘मैं तुम्हारा कथन कभी न टालूँ, चाहे प्राण भी चले जायें।’
ग) ‘तुम्हारा कहा हुआ वाक् मेरे लिये सर्वोच्च आदेश है।’
घ) ‘मेरा जीवन आपकी कथनी की सजीव प्रतिमा होगा।’
यह मत कहना, ‘मेरा काज तुम करो, मेरी चाहना पूर्ण करो, मेरी रक्षा तुम करो, मेरा मान स्थापित कर दो।’
भगवान की भक्ति भगवान की चाकरी है और भगवान की चाकरी भगवान के गुणों की महिमा का गान है। भगवान के गुणों की महिमा, उनके गुणों का इस्तेमाल है और भगवान के गुणों का इस्तेमाल तुम्हें अपने तन राही करना है। यानि, भगवान के गुण आपके तन से बहें, इससे बड़ी भगवान की कोई भक्ति नहीं।
करुणा, दया, प्रेम, न्याय और सत्य रूपा धन बांटो जहान को। यही भागवद् धन है, यही दैवी सम्पदा है। साधुता संरक्षण ही आपका केवल मात्र धर्म है। इसी में भगवान की महिमा निहित है। जब हमारे अपने नाते बन्धु, मित्रगण भी इन गुणों का नाश करें तो उनसे भिड़ जाना हमारा धर्म है।
भगवान से यह न कहो कि :
1.‘मैं तुम्हारी शरण पड़ा हूँ, अब ज़िम्मेवारी आपकी है।’
2. ‘मैं तुम्हारी शरण में पड़ा हूँ, अब बाकी कर्तव्य आपका है।’
3. ‘मैं हाथ बटाऊँ या न बटाऊँ, तुम मेरी रक्षा करो।’
4. ‘मैं तुम्हारी बात मानूँ या न मानूँ, तुम मेरी नैया पार लगा देना।’
5. ‘मैं तुम्हें नित्य ठुकराऊँगा, परन्तु तुम मुझे न ठुकराना।’
6. ‘मैं तुझे प्यार करूँ या न करूँ, तुम मुझसे प्यार निभा देना।’
नन्हीं जान्! इतनी पूजा के बाद भी करते तो हम यही हैं! इसीलिये इतनी भीषण पूजा के बाद भी परम पद से वंचित हो जाते हैं। इसीलिये तो जब संकट आ जाता है, हम किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं और पथ से गिर जाते हैं।
अब आगे सुनो, भगवान क्या कहते हैं।