Chapter 1 Shloka 45

अहो बत महत् पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:।।४५।।

Little one, listen now to what Arjuna says to Lord Krishna:

Alas! It is sad that we are ready to commit

this heinous sin to satiate

our greed for the pleasures of a kingdom;

that we are ready to kill our own relations!

 

Chapter 1 Shloka 45

अहो बत महत् पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:।।४५।।

Little one, listen now to what Arjuna says to Lord Krishna:

Alas! It is sad that we are ready to commit this heinous sin to satiate our greed for the pleasures of a kingdom; that we are ready to kill our own relations!

Watch carefully little one!

1. Arjuna is speaking thus to Lord Krishna – the Epitome of Knowledge!

2. He is speaking of sin to the One who is sinless;

3. Arjuna is not just accusing himself, he is implicating the sinless Lord!

4. Arjuna speaks of the satiation of greed to the One who is completely detached!

5. Arjuna discusses the subject of moha with the One who is devoid of moha and who symbolises the Pure Intellect!

Thus Arjuna, filled with doubts, imputes motives upon the deeds of the Lord Himself!

Why is knowledge so difficult to understand?

Little one, sadhaks make the same mistake.

a) When the Lord’s life and deeds do not match with our concept of divinity, we attribute our own meanings to knowledge.

b) We say whatever comes to our minds in order to absolve ourselves of any blame.

c) Not understanding our hidden concepts, we attempt to colour knowledge with the hues of our impressions and convictions.

d) We misunderstand the true perspective of knowledge in its essence and manifestation and tread the wrong path.

e) We take the support of goodness and try to evade our duty.

f)  We mislead ourselves by convincing ourselves that we are on the path of Truth.

Little one, a sadhak can only understand knowledge in its true perspective if he weighs and measures it, step by step, with the Lord’s life and example. Otherwise he will never be able to understand the Truth. If he remains enmeshed in the web of his own mental and subjective convictions, he can never comprehend the scriptural tenets and will thus find it not only difficult but impossible to progress in his spiritual endeavours. Even if the Lord Himself stands before him, such a sadhak will disregard Him and not recognise Him for what He is. Such a misguided sadhak will even attempt to prove Him wrong! This is what happened in Arjuna’s case.

a) By implication, Arjuna is trying to prove Lord Krishna wrong.

b) He is insinuating that the Lord is treading the path of sin!

c) He is even calling Him greedy!

d) One could even say, he is calling the Lord foolish!

When the mind is steeped in sorrow and is thus unbalanced, this is an inevitable outcome.

The root cause of doubt

1. When the mind does not get what it desires, it becomes agitated, blames others and becomes helpless.

2. When one is forced to act in a manner contrary to one’s convictions, doubt arises.

3. When moha arises due to one’s attachment with one’s desires, concepts etc., that moha takes a formidable form. Tempers run high and the intellect is obscured.

4. Then one’s understanding of knowledge also becomes warped.

As a consequence of all this, the person uses scriptural tenets to support his mental concepts. In doing so he changes the true meanings of knowledge and thus even sadhaks of a high order lose the spiritual path that leads to the Truth. Then a person cannot understand the essence or the external manifestation of that knowledge in life. In fact this is how knowledge of the Truth is obliterated.

अध्याय १

अहो बत महत् पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:।।४५।।

यह देख नन्हीं! अर्जुन भगवान स्वरूप श्री कृष्ण से क्या कह रहे हैं :

शब्दार्थ :

 

. अहो! खेद है,

. हम लोग महान् पाप करने को तैयार हुए हैं,

. जो राज्य सुख के लोभ के लिये

४. अपने बन्धु गण को मारने पर तुले हुए हैं।

तत्व विस्तार :

ध्यान से देख नन्हीं! अर्जुन कृष्ण की मानो उपेक्षा करते हैं।

1. अर्जुन यह सब भगवान श्री कृष्ण से कह रहे हैं।

2. अर्जुन यह सब ज्ञान स्वरूप श्रीकृष्ण से कह रहे हैं।

3. अर्जुन पाप करने की बात निष्पाप भगवान से कह रहे हैं।

4. अर्जुन अपने आपको ही नहीं, भगवान को भी लानत दे रहे हैं।

5. लोभ पूर्णता की बात निर्लिप्त स्वरूप भगवान को कह रहे हैं।

6. अर्जुन मोह पूर्ण हो जाने की बात मोह रहित विवेक स्वरूप कृष्ण से कह रहे हैं।

7. अर्जुन संशय पूर्ण होकर भगवान के भी आचरण पर संशय कर रहे हैं।

ज्ञान समझ क्यों नहीं आता?

नन्हीं जान्! साधक गण भी यही करते हैं।

क) भगवान का जीवन रूपा ज्ञान जब अपनी मान्यता से नहीं मिलता तो ज्ञान को अपना मन घड़न्त अर्थ दे देते हैं।

ख) अपने आपको दोष विमुक्त करने को जो जी चाहे कह देते हैं।

ग) अपनी निहित मान्यता को न समझते हुए, अपनी ही मान्यता से ज्ञान को रंगना चाहते हैं।

घ) ज्ञान के रूप तथा स्वरूप में भेद न जानते हुए ग़लत पथ का अनुसरण करने लगते हैं।

ङ) साधुता का आसरा लेकर कर्तव्य से छुटकारा पाना चाहते हैं।

च) कर्तव्य त्याग कर समझते हैं कि वह सत् पथ की ओर जा रहे हैं।

नन्हीं जाने जान्!

यदि साधक भगवान के जीवन से भगवान की कथनी को तोल तोल कर समझे, तब ही ज्ञान का वास्तविक रूप समझ आ सकता है वरना वह सत् नहीं जान सकेंगे। यदि साधक अपनी ही साधुता की मान्यता में फंसे रहे तो भागवद् ज्ञान को समझ भी नहीं सकेंगे। तब उनके लिये आगे बढ़ना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जायेगा। तब गर साक्षात् भगवान भी सामने खड़े होंगे, साधक उन्हें पहचान नहीं सकेंगे। साधुता गुमानी उन्हें ग़लत ही ठहरायेंगे।

देख ले! यहाँ भी यही हो रहा है।

क) अर्जुन संकेत से भगवान को ग़लत ठहरा रहे हैं।

ख) वह भगवान को पाप पूर्ण पथ का अनुयायी कह रहे हैं।

ग) वह उन्हें लोभी कह रहे हैं।

घ) क्यों न कहें, अर्जुन साक्षात् भगवान को मूर्ख कह रहे हैं।

जब मन दु:खी होता है और विभ्रान्त होता है तब ऐसे ही करता है। जब मनोवांछित फल नहीं मिलता, तब मन संशय करने लगता है और तड़प जाता है।

संशय क्यों होता है?

क) जब मन चाहा फल नहीं मिलता, मन भड़क जाता है, दोष लगाता है और व्याकुल हो जाता है।

ख) जब अपनी मान्यता के विरुद्ध कुछ करना पड़ता है, तब भी यही होता है।

ग) जब अपनी चाहना, मान्यता इत्यादि रूपा अज्ञान से संग के कारण मोह उठता है, वह भी भीषण रूप धर लेता है। क्रोध भी आ जाता है और बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है।

घ) ज्ञान की भी समझ ग़लत हो जाती है।

इस सबके परिणाम स्वरूप जीव आध्यात्मिक सिद्धान्तों को अपनी मान्यता के समर्थन के लिये इस्तेमाल करता है। इसलिये ज्ञान के अर्थ ही बदल जाते हैं तथा अनेकों श्रेष्ठ साधक भी सत् पथ को भूल जाते हैं, वे ज्ञान के स्वरूप और रूप को समझ नहीं सकते। तब ज्ञान लुप्त हो जाता है।

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