Chapter 1 Shloka 31

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।३१।।

Stricken with sorrow, Arjuna said:

O Keshava! The signs I see are not propitious;

nor do I see any good

in killing one’s relations in war.

Chapter 1 Shloka 31

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।३१।।

Stricken with sorrow, Arjuna said:

O Keshava! The signs I see are not propitious; nor do I see any good in killing one’s relations in war.

Keshava:

a) An epithet of Lord Krishna;

b) One who prays on behalf of the other – a universal benefactor, identified with the other’s sorrow and difficulties.

c) One who humbly accords respect to the other; such a one even becomes a servitor and accomplishes tasks for others, giving them the credit for the job done.

d) One established in Advaita or non-duality; such a one risks even his own reputation to accord esteem to another.

Arjuna called Lord Krishna ‘Keshava’. In other words he said, “You can understand my difficulties, you can identify with me in my sorrow.” He then admitted, “The signs do not seem to be propitious”:

1. The Gandiva is slipping from my hands;

2. My limbs have become weak;

3. You are by my side yet doubts are arising in me;

4. I only see signs of destruction;

5. I see no good in killing my brethren.

How could Arjuna see any good in this deed? Those whom he had worshipped stood before him in war. Those were the people he had loved and revered, who had imparted to him his knowledge of weapons and war. All his life, he had received knowledge from them – his Preceptor whom he respected like a father; Bhishma Pitamah, before whom he had always bowed his head, and several other elders and relations. What good could he derive by killing them? Arjuna felt he had suddenly changed his direction of life from the ascendent path – Uttarayan, to the descendent path – Dakshinayan; which led him away from his spiritual goal. Therefore he became agitated.

अध्याय १

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।३१।।

शोकातुर अर्जुन कृष्ण से बोले :

शब्दार्थ :

१.  हे केशव!

२.  मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देखता हूँ।

३.  तथा युद्ध में मैं अपने कुल को मार कर,

४.  कल्याण भी नहीं देखता हूँ।

तत्व विस्तार :

केशव का अर्थ :

1.  महा पण्डित के समान प्रार्थना करने वाला, यानि दूसरों को उन्हीं के हित में झुक कर मनाने वाला होता है।

2.  महा दु:खी के समान मनाने वाला, यानि दूसरे के दु:ख में तद्रूप होकर दूसरे के दु:ख की निवृत्ति अर्थ, उसे मनाने वाला होता है।

3.  महा झुके हुए के समान सम्मान देने वाला है, यानि वह स्वयं नौकर के समान दूसरों के कार्य में सफ़लता का सेहरा दूसरों को देने वाला होता है।

4.  अद्वैत स्थित को ‘केशव’ कहते हैं। वह अपना मान मिटा कर भी दूसरों के मान की रक्षा करते हैं, यानि दूसरों के दु:ख के सदृश होने वाले और दूसरों की मनोव्यथा के तद्रुप होने वाले होते हैं।

5.  केशव भगवान कृष्ण का एक नाम है। अर्जुन ने कृष्ण को ‘केशव’ कह कर मानो कहा हो कि :

क) आप मेरा दु:ख समझ सकते हैं।

ख) आप मेरी व्याकुलता के तद्रूप होकर मुझे समझ सकते हैं।

ग) आप मेरी समस्या के तद्रूप होकर उसको समझ सकते हैं।

–   मैं निमित्त भी विपरीत देख रहा हूँ।

–   मेरे हाथों से गाण्डीव छूट रहा है।

–   मेरे अंग शिथिल पड़ गये हैं।

–   आप मेरे साथ हैं, फिर भी मन में संशय उठ रहे हैं।

–   आप मेरे साथ हैं फिर भी मैं द्वन्द्व में पड़ गया हूँ।

–   इन सब में मुझे केवल विनाश के ही चिह्न नज़र आते हैं।

फिर कहा, “मैं अपने ही कुल को मार कर कोई श्रेय का परिणाम नहीं देख रहा हूँ। अपने ही कुल को मारकर मुझे कोई कल्याण होता नहीं दिखता।”

अर्जुन को कल्याण कैसे दिख सकता था, क्योंकि जिनकी नित्य पूजा करी, जिनको नित्य चाहा, जिनसे शस्त्र विद्या सीखी, जिनसे ज्ञान पाया, जिनको पिता समान आदर दिया, जिनको पितामह जान कर नित्य सीस झुकाया, वह सब ही तो बुज़ुर्ग तथा नाते बन्धु युद्ध के लिये सामने खड़े हैं। इन सबको मार देने से क्या कल्याण हो सकता है? क्या श्रेय मिल सकता है? अर्जुन को ऐसा अनुभव हुआ, मानो उत्तरायण की ओर बढ़ते हुए वह दक्षिणायन की ओर जाने लगे हैं। इस कारण वह घबरा गये।

Copyright © 2024, Arpana Trust
Site   designed  , developed   &   maintained   by   www.mindmyweb.com .
image01