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Chapter 1 Shlokas 28, 29
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।२८।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।२९।।
Upon seeing all his relatives standing before him:
Arjuna was filled with pitiful compassion and in his anguish spoke thus: “O Krishna, each limb of mine weakens as I see standing before me this gathering of our kinsmen, desiring this war; my mouth is turning dry, my body is quivering, my hair is standing on end.”
Chapter 1 Shlokas 28, 29
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।२८।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।२९।।
Upon seeing all his relatives standing before him:
Arjuna was filled with pitiful compassion and in his anguish spoke thus: “O Krishna, each limb of mine weakens as I see standing before me this gathering of our kinsmen, desiring this war; my mouth is turning dry, my body is quivering, my hair is standing on end.”
Little one, Arjuna was immensely disturbed, just as any sensitive sadhu would be upon witnessing such a scene. He began to doubt himself:
1. Am I doing the correct thing?
2. Am I being driven by greed or desire?
3. Am I embarking on this atrocity for my own self establishment?
4. Where have my forgiveness and endurance disappeared?
Arjuna was in anguish upon seeing his own tendencies. Those to whom he was attached, whose desires he had always fulfilled, those in whose service he had spent his life tolerating insult, travails, deceit and even exile, for whom he had put his very life in peril and to whom he and his brothers had been givers without any expectations of any return, today he was preparing to kill those very kinsmen! These very relatives had been the practising ground for the inculcation of divine qualities in the Pandavas. Time and again they had borne all their assaults and now they confronted those very kin with the intention of defeating them in a terrible war!
Once more he was filled with compassion for those who had always invoked his compassion in the past. Arjuna was despondent. He became sick at heart and filled with melancholy. He was drowned in sorrow and devoid of any enthusiasm. He was overcome by a mental fatigue and drained of energy. He who had not been defeated by gross circumstances was now vanquished by his mind. Arjuna therefore said to Krishna, “O Krishna! My limbs are drained of energy, my mouth is dry and my body is shivering at the sight of these dear ones of mine who stand in readiness for battle. What is happening to me? Why am I becoming impotent?”
Arjuna was recognised as a brave warrior – one who was unconquerable and had achieved many victories. He was fearless, happy in the midst of sorrows, and second to none in heroic deeds. He was also accompanied by a brave army. Most of all, Lord Krishna Himself was his advisor and guide. Even so, seized by moha, he came into direct conflict with his mental world.
a) Arjuna’s goodness hindered his path. How could he bypass those very attributes on which he prided himself?
b) How could he fight – where he had practised humility?
c) How could he break his image of goodness and greatness?
Upon seeing his relatives, Arjuna was overcome by that greatest of marauders – moha.
The Kauravas were imbued with the qualities of attachment, greed and tamas; the Pandavas were bound by the attributes of Truth, enlightenment and rajas. The element of sattva predominated in the Pandavas and they embodied divine qualities. They were not gunatit or unaffected by all attributes, nor were they established in their essential Essence, in their swaroop.
Little one, there is a great difference in the Essence of Divinity – swaroop, and its practical form – roop. One who considers the roop or external form to be important, will necessarily make all efforts to protect his reputation from any slur. One who abides in the Essence of Divinity – the swaroop, is immersed in the Lord. He is oblivious to even his own mental concepts or what people may think of him. He worships the Lord’s qualities. He becomes a devotee of absolute justice, love and sincerity.
He supports justice:
a) even if it means siding with his enemy;
b) even at the risk of his own life;
c) and he is prepared to sacrifice his desires and even his near and dear ones at the altar of justice.
He is silent when injustice is meted out to him personally; but if he is approached by a victim of injustice, he fights for him at the risk of his own life.
Little one! He who is established in the swaroop has an extremely ordinary exterior. He leads a very normal life. Yet, he is unattached to his own body, mind and intellect and completely identified with the other who approaches him for help.
When God moulded the body of man, He did not design man’s eyes to look at himself, but to perceive the other. So also, the one who lives in the swaroop, is in complete identification with whosoever comes before him. What he cannot see, he does not remember. Therefore, the roop of the sthit pragya or Atmavaan is never constant. The knowledge he imparts to the other is also in keeping with the other’s state and understanding. Being thus totally unrelated to his own body, he rises above the concepts of paap, ‘sin’, and punya, ‘goodness’, because these concepts relate to one’s body.
अध्याय १
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।२८।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।२९।।
शब्दार्थ :
अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए अर्जुन यह वचन बोले,
१. हे कृष्ण,
२. इस युद्ध की चाहना वाले,
३. (सम्मुख) खड़े हुए स्वजन समुदाय को देखकर,
४. मेरे अंग अंग शिथिल हुए जाते हैं,
५. और मुख सूखा जाता है,
६. मेरा शरीर भी कांप रहा है,
७. तथा मेरे रोंगटे भी खड़े हो रहे हैं।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! अब अर्जुन घबरा गये, ज्यों दैवी भाव वाला हर साधु घबरा जाता है। उसे अपने आप पर ही संशय होने लगता है कि :
क) क्या मैं उचित कर रहा हूँ?
ख) कहीं मैं लोभ तो नहीं कर रहा?
ग) क्या मैं अपनी स्थापना के लिये इन सब पर अत्याचार कर रहा हूँ?
घ) कहाँ गई मेरी दया धर्म की वृत्ति?
ङ) कहाँ गई मेरी क्षमा धैर्य रूपा वृत्ति?
यही गति अर्जुन की भी हुई। अर्जुन भी सम्मुख बन्धु गण देख कर घबरा गये।
अपनी ही वृत्तियाँ देखकर अर्जुन घबरा गये।
1. संग रूप नाता जहाँ लगा हुआ था;
2. जिनकी चाहना नित्य पूर्ण करी;
3. जिनको नित्य रिझाया था;
4. जिनकी सेवा में जीवन गया;
5. जिनके सुझाव को मान लिया;
6. जिनके लिये अपमान सहा;
7. जिनके कारण बहुत कष्ट सहे;
8. जिनके कारण महा बनवास लिये;
9. जिनके लिये छल कपट को भी हंस कर सहा;
10. जिनके कारण प्राण भी मुश्किल से बचे, पर मौन रहे;
11. जिनको सब कुछ दिया ही दिया;
12. जिनसे कोई आशा न थी;
उन्हीं से आज युद्ध कर रहे थे।
– जिन्होंने देवत्व का अभ्यास करवाया, उन्हीं को ही आज मारने चले थे।
– जिन्हें दे देकर दैवी सम्पद् पाये थे, आज उन्हीं को मिटाने चले थे।
– जब प्रहार किये उन्होंने, तब सब सहे, जब प्रहार हुए, तब तो कुछ न कहा, अब उन्हीं को वह मारने कैसे चलें? करुणा उनपे नित्य ही करी, लो पुन: करुणा वहाँ आ गई।
अर्जुन विषाद :
अर्जुन अत्यन्त करुणा पूर्ण हुआ, उसका मन मानो दहल गया, दया से वह भरपूर हुआ।
क) विषाद पूर्ण हुआ मन उसका;
ख) शोक युक्त वह हो गया;
ग) उद्वेग पूर्ण मन हुआ;
घ) उदास मानो वह हो गया;
ङ) उत्साह खण्डित हो गया;
च) उत्साह हीन वह हो गया;
छ) म्लान् थकान उठ आई;
ज) निर्बल सा वह हो गया।
स्थूल से जो न हारा, मनोलोक से हार रहा है। अर्जुन कृष्ण से बोले :
“हे कृष्ण! इस युद्ध की इच्छा वाले खड़े हुए स्वजन समुदाय को देख कर मेरे :
क) अंग शिथिल हुए जाते हैं।
ख) मुख सूख रहा है।
ग) तन कांप रहा है।
घ) रोंगटे खड़े हो रहे हैं।”
यानि ‘नपुंसक’ बन रहा हूँ, यह क्या हुआ? महावीर, दुर्बल होने लगा। अर्जुन बलवान थे, शूरवीर थे, बहुत विजय पा चुके थे, अपराजित थे, निर्भय थे, जंगल में, मंगल में स्थिर रहे। वह पराक्रम में किसी से कम न थे, वीर सेना का भी साथ था, कृष्ण भी वहाँ साथ थे, तो क्या हुआ?
मोह से ग्रसित हुआ अर्जुन मनोलोक से टकरा गया।
क) देवत्व सामने आ गया।
ख) जिन गुणों का मान था, उन्हें कैसे वह ठुकरायें?
ग) नित्य झुक कर जहाँ रहे, वहाँ पे कैसे भिड़ जायें?
घ) निज श्रेष्ठता कैसे छोड़ दें? अपनी गुण श्रेष्ठता पर उन्हें मान था।
ङ) भाई! अपनी साधुता का जो रूप धरा था, उसे वह सहज में कैसे छोड़ दें?
च) महाघातक मोह उठ आया उनके मन में अपने बन्धुओं को देख कर।
कौरव मोह तृष्णा और तम से बन्धे थे। पाण्डव सत्य प्रकाश और रज से बन्धे थे तथा पाण्डवों में सत् प्रधान था। पाण्डवगण दैवी गुण रूपधारी थे, गुणातीत तथा स्वरूप स्थित नहीं थे।
नन्हीं! रूप और स्वरूप में बहुत भेद है। रूप तो जीवों को देखता है और स्थूल स्तर पर अपने दामन को बचा कर रखता है। स्वरूप भगवान में खोये हुए की स्थिति है। स्वरूप स्थित को अपनी मानो विस्मृति हो जाती है। वह भगवान के गुण का पुजारी होता है। वह निरपेक्ष न्याय का पुजारी है। वह निरपेक्ष प्रेम का पुजारी है। वह निरपेक्ष वफ़ा का पुजारी है।
वह न्याय के साथ है, चाहे :
क) उसे दुश्मन का ही साथ देना पड़े।
ख) अपने प्राण ही न्योछावर करने पड़ें।
ग) अपनी हर चाहना को कुर्बान क्यों न करना पड़े!
घ) अपने नाते बन्धुओं को भी कुर्बान क्यों न करना पड़े!
उसके अपने साथ अन्याय हो तो वह चाहे चुप रहे, किन्तु औरों के साथ अन्याय हो और उससे कोई मदद माँग ले तो वह कफ़न पहर कर अन्यायी से भिड़ जाते हैं। अन्याय को मिटाने के लिये प्राण न्योछावर कर देते हैं।
नन्हीं जान्! स्वरूप स्थित का रूप अतीव साधारण होता है और उसका जीवन भी अतीव साधारण होता है। वह अपने तन से बहुत दूर होता है, या यूँ कहो :
उसे अपने तन, मन, बुद्धि की विस्मृति हो जाती है और जो उसके पास आये, वह उसके तद्रूप हो जाता है।
एक बात समझ ले :
भगवान ने जब जीव का तन बनाया, उसे अपनी सूरत देखने के लिये आँखे नहीं दीं। चक्षु सामने देख सकते हैं, औरों को देख सकते हैं, अपने आपको नहीं देख सकते। स्वरूप स्थित जिसे देखता है, जहाँ जहाँ उसकी दृष्टि जाती है, वहाँ वहाँ उसकी समाधि लग जाती है, जो उसे दीखता नहीं, वह उसे याद नहीं रहता। इससे यदि समझ सको तो समझ लो कि स्थित प्रज्ञ, या कहें आत्मवान् का रूप एक नहीं होता। वह तो ज्ञान भी दूसरों के तद्रूप होकर कहता है, क्योंकि पाप पुण्य तन करता है और तनधारी होते हुए भी वह निराकार होता है। यह सब यहाँ समझना कठिन है किन्तु आगे चलकर समझ आने लग जायेगी।