अध्याय १
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।२५।।
भगवान ने रथ को सेनाओं के मध्य में :
शब्दार्थ :
१. भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने,
२. और सम्पूर्ण राजाओं के सामने खड़ा करके
३. कहा कि, “हे पार्थ, इन इकट्ठे हुए कौरवों को देख!”
तत्व विस्तार :
भगवान ने कहा : “इन इकट्ठे हुए कौरवों को देख”
क) यही अर्जुन के नाते बन्धु थे।
ख) इन्हीं के प्रति अर्जुन का मोह था।
ग) इन्हीं के कारण अर्जुन घबरा सकते थे।
घ) इन्हीं पर प्रहार करते समय अर्जुन का हाथ रुक सकता था।
सो भगवान ने कहा – “तू अभी इन्हें देख ले और अपना निर्णय कर ले, कि तू क्या चाहता है?”
सहज में कह देना कि ‘हम लड़ेंगे’आसान है; सहज में कह देना कि ‘हम साधना करेंगे’, आसान है; सहज में कह देना कि ‘हमें भगवान से प्रेम है’ आसान है; सहज में कह देना कि ‘हम तनत्व भाव त्याग करेंगे’, आसान है; किन्तु इन सबको जीवन में उतार लेना कठिन है।
भगवान ने रथ को लाकर भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के सम्मुख खड़ा कर दिया :
भगवान ने अर्जुन की कमज़ोरियाँ उसे पहले ही दिखा दीं। नन्हीं! अर्जुन दैवी सम्पदा पूर्ण थे, यानि वह बड़ों का आदर सत्कार करते थे और गुरु पूजन करना उनका सहज स्वभाव था।
आचार्य द्रोण तथा भीष्म पितामह के प्रति :
क) वह श्रद्धा रखते थे।
ख) विनीत भाव रखते थे।
ग) प्रेम तथा भक्तिपूर्ण भाव रखते थे।
घ) आज्ञाकारी भाव रखते थे।
ङ) इन दोनों को अर्जुन श्रेष्ठ मानते थे।
च) इन दोनों के चरणों में सीस झुकाते थे।
आज यही दोनों, निर्दयी अन्यायी दुर्योधन के साथ हो गये और उस अधर्मी के सहयोग के लिये अर्जुन के सम्मुख खड़े थे। फिर भी कृष्ण जानते थे कि इन पर प्रहार करने से पहले अर्जुन घबरा जायेंगे, व्याकुल हो जायेंगे, किम् कर्तव्य विमूढ़ हो जायेंगे, मोह ग्रसित, विमूढ़ हो जायेंगे। सत् अनुसरण की राह में उनके लिये यही दोनों सबसे बड़ी बाधा बनेंगे। निश्चय भंग करवाने वाले यही तो थे; जो अपने ही रुचिकर मित्र तथा बन्धु या गुरु तुल्य और कुल श्रेष्ठ थे। गुरु और बुज़ुर्ग नित्य दुर्योधन का साथ देते थे, इस कारण अर्जुन को भी अपने पर ही संशय होने लगा।
क) सहज संशय उत्पन्न करने वाले यही तो थे।
ख) सहज भेद उत्पन्न करने वाले यही तो थे।
ग) मति विभ्रान्त करने वाले यही तो थे।
घ) मन को विचलित करने वाले यही तो थे।
ङ) विक्षेप उत्पन्न करने वाले यही तो थे।
च) किम् कर्तव्य विमूढ़ बनाने वाले यही तो थे।
मोह के कारण अनर्थ करने वाला ‘मैं’ और ‘मेरा’ भावना का संसार होता है। इसी मानसिक संग तथा मोह से उत्पन्न हुई ग्रन्थियों के कारण :
1. मन घबरा जाता है।
2. साधु भी वहाँ डोल जाता है।
3. देवत्व समझ नहीं आता।
4. सत् से संग नहीं होता तो आगे बढ़ना कठिन हो जाता है।
5. यदि मन घबरा जाये तो साधु रूप स्वरूप की ओर कैसे बढ़े?
6. क्षमा शीलता से संग करने वाले के लिये विकराल रूप धरना कठिन लगता है।
7. जब मन मोह ग्रसित हो जाता है, तो सत्य और न्याय के लिये भी नहीं लड़ सकता।
सो, भगवान ने कहा, ‘इन्हें देख!’