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Chapter 1 Shloka 24
संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।२४।।
Sanjay says:
O Dhritrashtra! On Gudakesh’s request,
Hrishikesh steered the splendid chariot
and stood it between the armies.
Chapter 1 Shloka 24
संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।२४।।
Sanjay says:
O Dhritrashtra! On Gudakesh’s request, Hrishikesh steered the splendid chariot and stood it between the armies.
Arjuna has been called ‘Gudakesh’, that is:
1. One who has gained victory over sleep.
2. One who is untainted by laziness.
3. The master of his senses.
4. One who is ever awake.
(For the connotation of ‘Hrishikesh’ refer shloka 15 of this chapter.)
Now little one, understand carefully!
1. Lord Krishna was Arjuna’s charioteer.
2. Arjuna was not only a brave warrior but also the master.
3. Lord Krishna was merely Arjuna’s servant and thus it could be said that He was dependent on him.
4. Lord Krishna was so to say, striving to fulfil Arjuna’s wishes.
Lord Krishna, the Embodiment of Truth had assumed the position of a divine servant. Arjuna had to be established. His name and fame had to be re-established.
The Lord was endeavouring to impart the credit of victory to Arjuna by persuading him to take up arms. Thus the Lord gains a victory for the other, through the individual himself. The Lord merely serves as the seeker’s strength and intellectual guide. When the individual’s mental aberrations and blocks abate and his mind becomes peaceful, then his physical capability is enhanced.
Why did Krishna take Arjuna’s chariot in the midst of the two armies despite knowing that:
1. Arjuna was ridden with moha?
2. Arjuna would be beset with sorrow?
3. Arjuna would probably flee the battlefield?
4. Arjuna would be upset upon seeing his own kith and kin confronting him?
5. Arjuna’s very limbs would tremble with perturbation?
Why did the Lord accede to Arjuna’s request? Little one! You must remember that Lord Krishna was now placed in the position of a charioteer; a mere servitor whose duty it was to obey the master’s command.
Besides, Arjuna’s request to Lord Krishna, to place his chariot between the armies, was legitimate because he wanted to make a true assessment of the forces he had to fight.
Arjuna had deep faith in Krishna. He was quite sure that Lord Krishna would not leave or desert him, having once clasped his hand. However, had the Lord not obeyed Arjuna’s request, Arjuna would have been quite capable of changing his choice of charioteer! He would even have forgotten his friendship with Krishna in the heat of the moment and would have broken any relationship between them!
Confronted with such a problem, Lord Krishna bows to the other’s wishes for the other’s victory. However He explains the pros and cons to the other. Therein lies His strategy. But He gives no instructions in the gross unless He is asked. The Lord says nothing to the one who is happy with his own abilities.
A seeker too, should clearly ascertain his friends and foes before he embarks on his battle of spiritual endeavour or sadhana, so that later:
a) his steps do not falter;
b) his hands do not hesitate when he lifts them to sever his negativity;
c) his head does not rise when it should bow down;
d) the asuras do not gain ascendency over the devtas;
e) no concepts, attachments or moha interfere in the attainment of his goal.
A sadhak therefore takes full stock before embarking on his journey towards the Self.
अध्याय १
संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।२४।।
संजय बोले :
शब्दार्थ :
१. हे धृतराष्ट्र,
२. (गुडाकेश) अर्जुन के इस प्रकार कहने पर,
३. हृषीकेश श्री कृष्ण ने,
४. उत्तम रथ को,
५. दोनों सेनाओं के मध्य में ले जाकर खड़ा कर दिया।
तत्व विस्तार :
अर्जुन को यहाँ गुडाकेश कहा, यानि :
क) जिसने निद्रा को वश में किया हो,
ख) जो आलस्य रहित हो,
ग) जो अपनी इन्द्रियों का मानो पति हो,
घ) जो नित्य जागता रहे।
कृष्ण को पुन: हृषीकेश* कहा।
* (अर्थ के लिये अध्याय १ श्लोक १५ देखिये।)
अब नन्हीं ज़रा ध्यान से समझ!
क) भगवान कृष्ण अर्जुन के सारथी थे।
ख) अर्जुन मानो वीर योद्धा तथा मालिक थे।
ग) कृष्ण मानो अर्जुन के चाकर थे।
घ) कृष्ण मानो अर्जुन के अधीन थे।
ङ) कृष्ण मानो अर्जुन की चाहना पूर्ण करने के लिये हाज़िर थे।
च) कृष्ण अर्जुन के आज्ञाकारी सेवक थे। क्यों न कहें, कृष्ण भगवान साक्षात् सत् तत्व, एक यक्ष रूप, एक नौकर का रूप धारण किये हुए थे।
नन्हीं! स्थापित अर्जुन ने होना था, मान अर्जुन का बनना था, झण्डा भी अर्जुन का ही लहराना था।
यदि अर्जुन अपने आपको स्वयं स्थापित कर लें तो सेहरा भी अर्जुन को ही मिलेगा। तब विजय भी अर्जुन की ही होगी, मान भी अर्जुन को ही मिलेगा। इस कारण भगवान दूसरे की विजय उन्हीं की राही उन्हें ही दिलाते हैं। वह तो केवल बुद्धि बल देते जाते हैं। फिर नन्हीं! जब आक्षेप तथा आवरण कम होते जाते हैं, तो स्वत: ही जीव की स्थूल शक्ति भी बढ़ती जाती है, मन शांत होने लगता है।
जब कृष्ण जानते थे कि अर्जुन :
क) मोह युक्त हो जायेगा,
ख) शोक ग्रसित हो जायेगा,
ग) रण से भागना चाहेगा,
घ) नाते बन्धु सामने देख कर घबरा जायेगा,
ङ) अर्जुन के अंग अंग शिथिल पड़ जायेंगे,
च) विभ्रान्त मति हो जायेगा,
तो अर्जुन का रथ भगवान दोनों सेनाओं के मध्य में क्यों ले गये? उन्होंने अर्जुन की बात क्यों मान ली?
याद रहे नन्हीं जान्! कृष्ण केवल सारथी की हस्ती में अर्जुन के साथ थे। उन्हें अर्जुन की आज्ञा माननी ही थी, यही एक सारथी का कर्तव्य था। दूसरी ओर से, अर्जुन की माँग ठीक भी थी।
लड़ने से पहले सब कुछ देख लिया और लड़ने या न लड़ने का फ़ैसला कर लिया।
अर्जुन जानते थे कि :
1. कृष्ण उनका साथ नहीं छोड़ेंगे।
2. कृष्ण एक बार हाथ पकड़ कर नहीं छोड़ेंगे।
परन्तु यदि अर्जुन का कहना कृष्ण नहीं मानते तो :
क) अर्जुन ज़रूर अपना सारथी बदल लेते,
ख) अर्जुन ज़रूर कृष्ण को अपने से दूर भी कर देते,
ग) अर्जुन ज़रूर कृष्ण से नाता तोड़ देते,
घ) अर्जुन को उस समय अपना साख्य भाव भी भूल जाता।
जब ऐसी कोई समस्या आ जाये तो दूसरे की विजय के लिये :
1) कृष्ण झुक जाते हैं।
2) कृष्ण दूसरे को स्वंय मनाते हैं, यही उनकी महान् नीति है।
3) वह मौन हो जाते हैं।
4) स्थूल में वह कुछ नहीं कहते, जब तक उन्हें पूछा न जाये।
5) जो अपने बल पर सुखी हैं, भगवान उन्हें कुछ नहीं कहते।
साधक को भी यही चाहिये कि जीवन संग्राम या साधना आरम्भ करने से पहले ही अपने अरि और मित्र को देख कर भली प्रकार समझ ले, अन्यथा कहीं साधना आरम्भ करने के पश्चात् :
क) कदम लड़खड़ा न जायें।
ख) प्रहार करने के समय हाथ रुक न जायें।
ग) सीस झुकाने के समय सीस उठ न जाये।
घ) देवत्व विजय की जगह पर असुरत्व न जीत जाये।
ङ) राहों में कोई मान्यता न रोक ले।
च) राहों में कोई मोह न भरमा दे।
छ) राहों में कहीं संग ही न लूट ले।
इन सबको पहले ही देख लेना अनिवार्य है।