Chapter 1 Shlokas 20, 21

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वज:।

प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डव:।।२०।।

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।२१।।

Sanjay spoke:

O King! Thereafter, Arjuna, bearing the flag of Hanuman, on seeing the sons of Dhritrashtra at that time of preparation of arms, lifted his bow and said to Hrishikesh, “O Achyut! Station my chariot between the two armies.”

Chapter 1 Shlokas 20, 21

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वज:।

प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डव:।।२०।।

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।२१।।

Sanjay spoke:

O King! Thereafter, Arjuna, bearing the flag of Hanuman, on seeing the sons of Dhritrashtra at that time of preparation of arms, lifted his bow and said to Hrishikesh, “O Achyut! Station my chariot between the two armies.”

Little one! When the war seemed inevitable, Arjuna lifted his bow. Upon seeing the sons of Dhritrashtra he said to Lord Krishna, “Take me between the two armies.”

1. A seeker wants to know his opponents.

2. He wants to assess their strength.

3. One endowed with divine qualities wants to examine his own negative tendencies and also know of those latencies which will aid him in his pursuit of Truth.

4. He wants to know the true nature of the ego which he has to fight.

Arjuna bore the flag of Hanuman

1. It signifies love for Lord Rama.

2. Hanuman was a servant of Sri Rama and all He stood for.

3. Followers of the dharma of Truth generally carry Hanuman’s flag.

Why should not the Lord Himself support such a one? It was natural that Lord Krishna held Arjuna by the hand.

As other warriors collected their weapons in preparation for battle, Arjuna said to Sri Krishna, “O Achyut! Place my chariot between the two armies.”

Achyut (अच्युत)

1. One who is devoid of aberrations;

2. One who does not get perturbed;

3. One who cannot stumble;

4. One who is untouched by desire;

5. One who is unchangeable and immutable.

Arjuna asked Such a One to station his chariot between the two armies:

a) “I wish to see the paths of shreya and preya.

b) I wish to understand ego and virtue.

c) I wish to divine the strength of both.

d) I wish to discriminate between vidya and avidya.”

This vision can be imparted only by an ‘Achyut’.

Little one! We can understand the distinction between Truth and untruth easily if we make the Lord our witness. It is with His support and through His grace that we can distinguish between shreya and preya and comprehend the full scope of duty. Without His support, one can get lost in false meanings and concepts and get confused about one’s duty in life.

अध्याय १

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वज:।

प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डव:।।२०।।

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।२१।।

संजय कहते हैं :

शब्दार्थ :

१.  हे राजन्! उसके बाद,

२.  कपिध्वज वाला अर्जुन,

३.  धृतराष्ट्र पुत्रों को खड़े देख कर,

४.  उस शस्त्र चलाने की तैयारी के समय,

५.  हाथों में धनुष उठा कर,

६.  हृषीकेश (श्रीकृष्ण) को,

७.  यह वाक्य बोला कि

८.  हे अच्युत! मेरा रथ, दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! जब लड़ाई होने लगी, तब अर्जुन ने हाथ में धनुष उठा लिया, पर सामने धृतराष्ट्र के पुत्रों को देख कर कृष्ण से बोले “मुझे दोनों सेनाओं के मध्य में ले चलिये।”

साधु देखना चाहता है कि मैंने किससे लड़ना है, दुश्मन की शक्ति कितनी है, कौन कौन मेरा दुश्मन है? दैवी गुण सम्पन्न साधक मानो अपनी ही दुर्वृत्तियों तथा सत् अनुसरण समिधा का निरीक्षण करना चाहता है। वह जानना चाहता है कि अहंकार क्या है, जिससे उसने भिड़ना है।

धृतराष्ट्र के पुत्रों को इस विधि खड़े देख कर यानि लड़ने के लिये तैयार देख कर कपिध्वजधारी अर्जुन ने कृष्ण भगवान से ऐसा कहा।

कपिध्वज :

1.  हनुमान का झंडा लहराते हुए अर्जुन लड़ने चले थे।

2.  हनुमान राम प्रेम का प्रतीक है।

3.  हनुमान राम तत्व का चाकर है।

4.  हनुमान राम स्वरूप का अनुयायी है।

5.  सत् धर्म अनुयायी हनुमान ध्वज धारण करते हैं।

ऐसों का राम क्यों न साथ दें? कृष्ण क्यों न ऐसे को हाथ दें!

शस्त्र प्रवीण योद्धा शस्त्र हाथ में लेकर चलाने के लिये तैयार हुए। तब अर्जुन ने कृष्ण से कहा :

“हे अच्युत!” अर्थात् :

1.  विकार रहित,

2.  जो डगमगाये नहीं,

3.  जो फिसले नहीं,

4.  जो अपनी कामना का शिकार स्वयं नहीं होते।

5.  जो आप कभी नहीं बदलते,

6.  जो चलायमान कभी नहीं होते।

ऐसे कृष्ण से अर्जुन ने कहा कि ‘मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में ले चलिये।’

1.  मैं श्रेय और प्रेय दोनों, देख तो लूँ।

2.  अहं और साधुता समझ तो लूँ।

3.  दोनों का बल कुछ निरख तो लूँ।

4.  विद्या और अविद्या दोनों का विवेक चाहिये।

क) इन द्वौ पक्ष के दर्शन कठिन हैं।

ख) साधक सत् असत् कैसे देख सके?

ग) भगवान कृपा से ही देख सकते हैं।

घ) अर्जुन अविद्या और विद्या के दर्शन की याचना कर रहा है।

यह दर्शन सत् स्वरूप अच्युत ही करवा सकते हैं।

नन्हीं! गर भगवान को साक्षी बना लें, तब सत् असत् में भेद समझना आसान हो जाता है। भगवान के ही आसरे साधक वास्तविक श्रेय तथा प्रेय पथ समझ सकता है। भगवान के ही आसरे साधक वास्तविक कर्तव्य को भी समझ सकता है वरना वह किम्कर्तव्य विमूढ़ हो जाता है।

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