Chapter 7 Shloka 30

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:।।३०।।

He who knows Me and also knows

Adhibhoot, Adhidaiva, and Adhiyagya,

such a one of steadfast mind 

is fixed in My knowledge

even during Prayaankaal i.e. death.

Chapter 7 Shloka 30

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:।।३०।।

The Lord now proclaims:

He who knows Me and also knows Adhibhoot, Adhidaiva, and Adhiyagya, such a one of steadfast mind is fixed in My knowledge even during Prayaankaal i.e. death.

The Lord explains Adhibhoot, Adhidaiva and Adhiyagya in detail in the next chapter. It will suffice to understand here that ‘All is Vaasudeva’.

1. It is He who is Lord of all the animate and inanimate worlds.

2. He Himself constitutes the subtle spheres and is an embodiment of divine prowess.

3. That Supreme Brahm, That Essence of Yagya – That One is the Lord of Yagya in the life of all.

Knowing all this and realising it in life, the sadhak renounces the body idea. It could also be understood that when the ‘I’ is annihilated, such an aspirant is absorbed into the Supreme – no matter whether his body still exists or not. He becomes one with the Atma.

The meaning of Prayaankaal (प्रयाणकाल)

a) Departure;

b) To proceed ahead;

c) To go elsewhere;

d) Death;

e) To proceed to higher spheres.

Prayaankaal does not necessarily mean death. It could also indicate the time when one transcends the body idea, annihilates the ‘I’ or renounces the idea of individual existence.

अध्याय ७

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:।।३०।।

अब भगवान आगे कहते हैं कि:

शब्दार्थ :

१. जो पुरुष, अधिभूत और अधिदैव तथा अधियज्ञ सहित मेरे को जानता है,

२. वह युक्त चित्त वाला पुरुष,

३. प्रयाण काल में मुझे ही जानता है।

तत्व विस्तार :

अधिभूत, अधिदैव तथा अधियज्ञ भगवान आगे सविस्तार कहेंगे। यहाँ इतना ही समझना काफ़ी है कि पूर्ण वासुदेव ही हैं। वह,

1. सम्पूर्ण जड़ चेतन वैश्वानर रूप के पति हैं।

2. सम्पूर्ण तेजस् स्वरूप, दैवी शक्ति स्वरूप, स्वयं ही हैं।

3. परम ब्रह्म, अखण्ड यज्ञ स्वरूप, जीव के जीवन में यज्ञपति भी वह ही है।

यह सब जानकर और जीवन में मानकर, साधक तनत्व भाव का त्याग कर देता है। या कह लो, जब तन से ‘मैं’ भाव मृत्यु को पा लेता है, फिर तन रहे न रहे, वह परम में समा जाता है। यानि, आत्म रूप हो जाता है।

नन्हीं! ‘प्रयाणकाल’ को समझ ले।

प्रयाण :

1. प्रस्थान को कहते हैं।

2. आगे बढ़ जाने को कहते हैं।

3. गमन को भी कहते हैं।

4. मृत्यु को भी कहते हैं।

5. उत्क्रमण कर जाने को भी कहते हैं।

यहाँ प्रयाण का अर्थ तन की मृत्यु नहीं है, तनत्व भाव का उत्क्रमण कर जाना है मानो ‘मैं’ भाव की मृत्यु है, जीवत्व भाव के त्याग का समय है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुन संवादे ज्ञानविज्ञान योगो नाम

सप्तमोऽध्याय:।।७।।

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