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Chapter 7 Shloka 8
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु।।८।।
I am the sap in water;
I am the luminescence of the moon and the sun;
I am the Omkaar of all the Vedas;
I am the sound that permeates the ether;
I am the manliness of man.
Chapter 7 Shloka 8
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु।।८।।
Little one, the Lord now says:
I am the sap in water; I am the luminescence of the moon and the sun; I am the Omkaar of all the Vedas; I am the sound that permeates the ether; I am the manliness of man.
1. I am the sap of water:
– I am the substratum of water;
– I am the essence of water;
– I am its basic element.
2. I am the luminescence of the moon and the sun.
– I am the warmth of the sun;
– I am the cool purity of the moon;
– I cause the radiance that emanates from these orbs.
3. I am the Omkaar of the Vedas.
– I am the support of the Vedas;
– I am their essence;
– It is I who speak from their core;
– I am their very soul;
– I am their gist.
4. I am the sound that reverberates in ether.
– I am the resounding factor;
– I am the wind that pervades the skies;
– I am the substratum of the ether.
5. I am the manliness in man.
– I am the brilliance that inheres in man;
– I am his strength;
– I am the consciousness that abides therein.
Listen, if all these are indeed the Lord, what then is our status? What is our significance? In vain do we claim this body and take pride in our human existence. Renounce this illusion forthwith and abide in your Essential Nature.
Little one, the Lord is presenting the practical implementation of knowledge. ‘You are not this body’ – this is what knowledge states. If you seek to be established in this truth, know that:
1. This entire Universe is the Lord’s Creation.
2. This entire Universe seems to be divided within That Indivisible Brahm.
3. Your body, too, belongs to Brahm.
4. Your mind belongs to Brahm.
5. Your intellect belongs to Brahm.
6. All that exists, gross or subtle, are all manifestations of that Brahm.
7. The entire Prakriti is dependent on Brahm.
If you truly believe this, the ‘I’ that individualises you will be dissolved.
Knowledge presents the truth ‘All is Brahm’. By practising this truth in life, one can realise that elevated state and transcend the body self.
Little one, all that is said of that Supreme Truth is gyan or knowledge. The realisation that this entirety is the Atma Itself, is vigyan.
अध्याय ७
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु।।८।।
नन्हीं! अब भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
क) जल में मैं रस हूँ,
ख) चन्द्र सूर्य में मैं प्रकाश हूँ,
ग) वेदों में मैं ओंकार हूँ,
घ) आकाश में मैं शब्द हूँ,
ङ) पुरुषों में मैं पुरुषत्व हूँ।
तत्व विस्तार :
1. जल में जल का रस मैं ही हूँ, अर्थात्:
क) जल में जल का सार मैं ही हूँ।
ख) जल में जल का आधार मैं ही हूँ।
ग) जल में जल का तत्व मैं ही हूँ।
2. सूर्य चन्द्र में प्रकाश मैं ही हूँ, अर्थात्:
क) सूर्य में ऊष्णता मैं ही हूँ।
ख) चन्द्र में शीतलता मैं ही हूँ।
ग) चन्द्र सूर्य में उजाला करने वाली शक्ति मैं ही हूँ।
3. वेदों में मैं ओम्कार हूँ, अर्थात् :
क) वेदों का आधार मैं ही हूँ।
ख) वेदों का सार मैं ही हूँ।
ग) वेदों की पुकार मैं ही हूँ।
घ) वेदों के प्राण मैं ही हूँ।
ङ) वेदों का सारांश मैं ही हूँ।
4. आकाश में शब्द मैं ही हूँ, अर्थात्
क) आकाश में गुंजार मैं ही हूँ।
ख) आकाश में वायु मैं ही हूँ।
ग) आकाश में तत्व सार मैं ही हूँ।
5. पुरुषों में पुरुषत्व मैं ही हूँ, अर्थात् :
क) पुरुष में तेज मैं ही हूँ।
ख) पुरुष में शक्ति मैं ही हूँ।
ग) पुरुष में चेतना मैं ही हूँ।
देख! गर यह सब भगवान हैं तो तेरी मेरी क्या हस्ती है, तेरी मेरी क्या स्थिति है? हम नाहक ही तन अपनाते हैं, पुरुषत्व अपनाते हैं। अब तो यह मिथ्यात्व छोड़ दे और अपने स्वरूप में बैठ जा।
नन्हीं! यहाँ भगवान ज्ञान का अभ्यास करवा रहे हैं। तुम तन नहीं हो, यह ज्ञान है और इसमें स्थित होना है तो यह जान लो कि :
1. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भगवान की रचना है।
2. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अखण्ड ब्रह्म में विभाजित सा हुआ ब्रह्म ही है।
3. तुम्हारा तन भी ब्रह्म का ही है।
4. तुम्हारा मन भी ब्रह्म का ही है।
5. तुम्हारी बुद्धि भी ब्रह्म की है।
6. जड़ चेतन जो भी है, उस ब्रह्म का ही रूप है।
7. पूर्ण प्रकृति ब्रह्म पर ही आश्रित है।
यदि इस बात को तू मान ले तब तुम्हारी व्यक्तिगत कराने वाली मैं का अभाव हो जायेगा।
सब ब्रह्म ही है, यह ज्ञान है। सब ब्रह्म ही है, इसका जीवन में अभ्यास करने से तुम उस स्थिति को जान सकोगे और तनत्व भाव से उठ सकोगे।
नन्हीं! वास्तव में आत्म तत्व की बात ही ज्ञान है।
पूर्ण आत्म तत्व ही है, इस दृष्टिकोण से ब्रह्माण्ड को जानना विज्ञान है।