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Chapter 6 Shlokas 11, 12
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।११।।
तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय:।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।१२।।
Speaking of the requisite seat for the practice of yoga, the Lord says:
Placing his cloth, deer skin and kusha grass in the correct manner upon purified soil, and fixing his seat in a spot not too high, nor too low, the Yogi should seat himself with a focused mind, having controlled the activity of the mind-stuff and sense organs. Then he should practice Yoga for self-purification.
Chapter 6 Shlokas 11, 12
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।११।।
तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय:।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।१२।।
Speaking of the requisite seat for the practice of yoga, the Lord says:
Placing his cloth, deer skin and kusha grass in the correct manner upon purified soil, and fixing his seat in a spot not too high, nor too low, the Yogi should seat himself with a focused mind, having controlled the activity of the mind-stuff and sense organs. Then he should practice Yoga for self-purification.
Kamla Bhabhi, now hear what those who practice yoga say:
Shuchau Deshey (शुचौ देशे) – Sanctified soil
a) Seated on the purified ground of his inner self;
b) with thoughts unsullied;
c) steadfast in the pristine attitude of selflessness;
d) with his mind, the abode of sadhana, purged of impurities, detached and free of all doubts;
e) seated in this attitude, with a mind imbued with faith in the Truth, the aspirant should make every effort to practice yoga.
Vastra (वस्त्र) – Cloth
a) Place the fabric of the discerning intellect upon all sense objects,
b) cloak yourself with the sheet of detachment against the onslaught of the sensory world,
c) annihilate all feelings of ‘me’ and ‘mine’ with external contacts,
d) place the sheet of Truth over all hopes and cravings,
e) and cover all attachments and moha with the sheet of detachment.
Ajin (अजिन्) – Deer skin
Thereafter, place upon it:
a) the ‘hide’ of the idea of doership;
b) in other words prepare to seat yourself upon this carcass – your body;
c) thus position yourself over this attitude of doership and identification with the body;
d) make your ‘seat’ upon the ego which rules this body and quell this all powerful, strong and resolute master of the body.
Thus having placed the ‘garments’ that form the external trappings of the mind, spread upon them the ‘hide’ of the body idea and prepare the seat further with Kusha.
Kusha (कुशा) – Grass
Thereafter, place upon it:
a) your sinful intellect that has all along supported sin, and make it steady;
b) that sharp intellect – as piercing as the kusha grass.
c) that ego which is brimming with pride.
You have to take your seat upon all this; whatever knowledge the ego acquires, you have to remain detached from it.
Kusha is analogous with ‘sharp, shrewd, piercing’. Therefore it is used as synonymous with the intellect.
1. Seat yourself on the intellect, subjugate it.
2. Discard the intellect that is partial to the mind.
3. These thought processes belong to the mind – not the intellect; sit on them, silence them.
4. The mind is not objective – take your seat over it to subjugate it.
5. This mind has not helped to unite you with the Supreme – in fact it has distanced you further. Suppress and quell this mind beneath you.
Having made such a seat upon the sanctified soil of your inner being, seat yourself on that dais and control all the faculties. Conquer them all.
This ‘seat’ should not be too ‘high’ nor too ‘low’. It should be ‘steady’, so that it does not ‘shake’.
Once the sadhak has thus controlled desire, he never lets it free again.
a) He does not become unsteady with the fear of any situation.
b) He remains steadfast even in opposition.
c) He does not get perturbed even if obstacles come his way.
d) He must thus subjugate his own ego and remain ever vigilant.
Now such a one should fix his concentration on the Supreme.
Little one, the Lord says, “Sitting upon such a seat, having controlled his mind and sense faculties, the practicant should practice yoga for self purification.”
The latencies or sanskars of previous lives and of the present one are washed away with such practice.
Whilst practising yoga, the sadhak must endeavour:
a) to fix his mind-stuff in the Supreme;
b) to establish himself in the Atma;
c) to renounce what he is not. i.e. the anatma;
d) to focus his concentration on what he is in reality and to establish himself in that Atma;
e) to prove the Lord’s Word through the example of his life;
f) to understand the correct connotation of the Lord’s word through the example of the Lord’s life.
This is the practice of yoga.
अध्याय ६
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।११।।
तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय:।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।१२।।
अब भगवान योगी के आसन के विषय में बताते हुए कहने लगे कि :
शब्दार्थ :
१. शुद्ध भूमि में,
२. कुशा, मृगछाला और वस्त्र, विधि से लगाकर,
३. अपने आसन को न अति ऊँचा, न अति नीचा,
४. स्थिर, स्थापन करके,
५. उस आसन पर बैठ कर,
६. मन को एकाग्र करके,
७. चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में करके,
८. आत्म विशुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे।
तत्व विस्तार :
कमला भाभी! योगाभ्यास करने वाले क्या करते हैं, यह जान! तुम्हारे लिये कहती हूँ।
‘शुचौ देशे,’ अर्थात् शुद्ध भूमि,
1. विवेकपूर्ण शुद्ध आन्तर में बैठकर,
2. शुद्ध चित्त में बैठकर,
3. शुद्ध निष्काम भाव में स्थित होकर,
4. शुद्ध मन, जो साधना का स्थान है, वहाँ पर बैठकर,
5. निरासक्त मन में बैठकर,
6. संशय रहित, पावन मन में बैठकर,
7. श्रद्धापूर्ण सत् परायण मन में बैठकर, साधक योग का अभ्यास करे।
वस्त्र :
क) पूर्ण विषयन् पर विवेक का वस्त्र डालकर,
ख) स्पर्श मात्र जहान के प्रति निसंगता की चादर डालकर,
ग) स्थूल सम्पर्क में ममता मिटाकर,
घ) आशा, तृष्णा पर मानो तत्व की चादर डालकर,
ङ) संग, लिप्तता तथा मोह पर निरासक्ति की चादर डालकर, पहले उसे ढक दो,
अजिन् :
तत्पश्चात् उसके ऊपर,
1. मानो अपनी तनत्व भाव रूपा ढाल बिछा दो।
2. यानि, अपने मांस की थैली पर बैठने का इन्तज़ाम करो।
3. तनत्व भाव के साथ कर्तृत्व भाव पर भी आसन लगा दो।
4. यह अहं, जो तन का पति है, उसपे आसन लगा दो।
5. महाशक्तिवान्, बलवान्, साहसी, तनोपति अहं को दबा दो।
पहले बाह्य आवरण डालने वाले वस्त्र लगा दो, फिर तनत्व भाव रूप छाल लगा दो।
कुशा :
तत्पश्चात् उसपे अपनी :
क) पाप युक्त, पाप का समर्थन करने वाली बुद्धि स्थिर कर लो।
ख) तीक्ष्ण, कुशा रूप, तीव्र बुद्धि धर लो।
ग) महागुमान पूर्ण है जो अहं, उसका आसन बना लो।
तुझे इसके ऊपर ही आसीन होना है। यह जो ज्ञानोपार्जन करे, इससे भी तुझे निसंग होना है।
‘कुश’, तेज़, तीव्र, तीक्ष्ण को भी कहते हैं, यानि यह बुद्धि की बात है।
घ) इस बुद्धि पर भी आसन लगा।
ङ) इस मनो संगिनी बुद्धि को भूल जा।
च) यह संकल्प विकल्प मन के हैं, बुद्धि के नहीं, उन पर आसन लगा।
छ) यह मन निरपेक्ष नहीं, इसके ऊपर आसन लगा।
ज) इसने अभी तुझे परम से मिलाया नहीं बल्कि दूर ही किया है। इस मन को भी अपने नीचे दबा ले।
इसे पुन: समझ ले।
वस्त्र : स्पर्श मात्र जग रूपा विषयों पर डाल।
छाल : चर्म थैली तेरे तन की है।
कुशा : तेरा मन कहें, जिसने बुद्धि का रूप धरा हुआ है।
चित्त की पावन भूमि पर,
1. इन सबका आसन बना।
2. इन सब पर आसीन हो जा।
3. इन सबको वश में कर ले।
4. इन सबको पराजित कर दे।
यह आसन न अति ऊँचा होना चाहिये, न अति नीचा होना चाहिये। यह आसन स्थिर होना चाहिये अर्थात् उसे डोलना नहीं चाहिये।
साधक एक बार अपनी वासना को दबाकर फिर वहाँ से उठता नहीं है।
अर्थात् :
क) परिस्थिति भय से डोले नहीं।
ख) विरोधी मिल जायें तब भी स्थिर रहे।
ग) विघ्न आयें राहों में तब भी विचलित न हो।
घ) वह आप ही अपने अहंकार पर बैठा हो।
ङ) साधक सदा सावधान होकर रहे।
अब ध्यान परम में लगाईये।
नन्हीं! भगवान कहते हैं, इस आसन पर बैठकर, एकाग्र मन तथा इन्द्रिय संयम करके आत्म विशुद्धि के लिये योग का अभ्यास कर।
नन्हीं! जन्म जन्म के संस्कार तथा आधुनिक जन्म के संस्कार इस अभ्यास से धुल जाते हैं। योग अभ्यास करते हुए साधक :
1. परम में चित्त धरने का प्रयत्न करता है।
2. अपने आपको आत्मा में स्थित करने के प्रयत्न करता है।
3. जो वह नहीं है, यानि अनात्मा का त्याग करने के प्रयत्न करता है।
4. जो वह है, यानि आत्मा में स्थित होने के रहस्य पर ध्यान देता है।
5. भगवान जो भी कहते हैं, उसे जीवन में प्रत्यक्ष प्रमाणित करने के लिये समझने के प्रयत्न करता है।
6. भगवान जो भी करते हैं, उनकी जीवन प्रणाली को समझने के प्रयत्न करता है।
यानि योग का अभ्यास करता है।