अध्याय ६
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।९।।
अब भगवान उस आत्मवान् योग स्थित के विषय में बताते हैं कि वह :
शब्दार्थ :
१. सुहृद्, मित्र और शत्रु के मध्य में नित्य उदासीन होता है।
२. वह द्वेषी और बन्धुओं में,
३. साधुओं और पापियों में भी,
४. समबुद्धि होता है।
तत्व विस्तार :
नन्हीं जान! अब आगे समझ! अब भगवान समबुद्धि वाले श्रेष्ठ योगी के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि वह सुहृद्, मित्र और शत्रु के प्रति नित्य उदासीन है।
सुहृद् यानि :
क) जो प्रत्युपकार का ध्यान बिना धरे भला करने वाला होता है।
ख) जो स्वभाव से ही दूसरे का हित करने वाला होता है।
ग) जो सबका कल्याण करने वाला होता है।
सुहृद् वह होते हैं जो बुरे भले या ऊँच नीच का बिन ध्यान किये, दूसरों का भला करने वाले होते हैं।
मित्र :
1. मित्र अपने स्नेही गण को कहते हैं।
2. अपने हमख़्याल और शुभ चिन्तक को कहते हैं।
3. अपने स्नेह के वश में हुए हितैषी को कहते हैं।
अरि :
क) अरि, दुश्मन को कहते हैं।
ख) अरि वह होता है जो आपको नष्ट करना चाहता है।
ग) अरि वह होता है जो आपका अनिष्ट चाहता है।
यहाँ यह सब कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मवान्, सुहृद, मित्र या दुश्मन से नित्य अप्रभावित रहते हैं। सुहृद, मित्र या दुश्मन के मध्य में रहते हुए भी वे राग द्वेष रहित होते हैं।
ऐसे लोग :
1. मित्रता या दुश्मनी से घबराते नहीं।
2. अपने हित करने वाले के पास बिक नहीं जाते।
3. सुहृद, मित्र या बैरी से भी निरपेक्ष भाव से न्याय और प्रेम पूर्वक व्यवहार करते हैं।
4. सुहृद, मित्र या वैरी के प्रति भी निरपेक्ष भाव से अपना कर्तव्य निभा देते हैं। फिर भगवान कहते हैं कि ऐसे आत्मवान् :
क) द्वेष करने वाले और बन्धुओं के प्रति भी समबुद्धि होते हैं।
ख) साधुओं और पापियों के प्रति भी समबुद्धि होते हैं।
इसी विषय में भगवान पहले भी कह कर आये हैं कि वे पण्डित गण, ब्राह्मण, जानवर तथा चाण्डाल में समदर्शी होते हैं।
योगी की बुद्धि सम होती है :
नन्हीं!
1. योग स्थित की बुद्धि सम ही होती है।
2. योग स्थित की बुद्धि स्थिर ही होती है।
3. योग स्थित की दृष्टि सम ही होती है।
4. वे विषयों और विषयों के गुणों से भी प्रभावित नहीं होते।
5. वे स्वयं गुणातीत होते हैं।
6. वे स्वयं स्थित प्रज्ञ होते हैं।
7. वे अपने प्रति उदासीन हो जाते हैं, इस कारण उनकी बुद्धि आवृत नहीं होती।
ऐसे जीव को मित्र, अरि या सुहृद् प्रभावित नहीं करते। वे तो सबके सुहृद् स्वयं होते हैं। वे तो सबके कल्याण करने वाले स्वयं होते हैं। वे किसी से भी राग द्वेष नहीं करते।