अध्याय ५
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।२१।।
अब भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. बाह्य स्पर्श से जिस भी विषय का बोध हो,
२. उसके प्रति जो आसक्ति रहित और अपने आत्मा में सुखी रहे,
३. वह पुरुष ब्रह्म योग युक्त है
४. और अक्षय आनन्द को पाता है।
तत्व विस्तार :
‘बाह्य स्पर्श में आसक्ति रहित आत्मा’ का विवरण :
क) ज्ञानेन्द्रियाँ, जो बाहर से ज्ञान लायें,
ख) ज्ञानेन्द्रियाँ जो बाहर से अनुभव करें,
ग) ज्ञानेन्द्रियाँ जो बाहर के विषयों के गुण बतायें,
घ) ज्ञानेन्द्रियाँ जो बाहर उपभोग करके आयें, उन सबके प्रति वह नित्य निरासक्त है।
निरासक्त का अर्थ है :
1. जो नितान्त उदासीन रहता है।
2. जो इनसे प्रभावित नहीं होता।
3. जो इनसे विकारवान् नहीं होता।
4. जो इनसे मोहित नहीं होता।
5. जो इनसे तृष्णापूर्ण नहीं होता।
6. जो इनसे संग नहीं करता।
ब्रह्म योग युक्त :
फिर भगवान कहते हैं :
क) जो अपने आप में सुख पाता है,
ख) जो अपने आप में तृप्त रहता है,
ग) जो अपने आप में शान्त रहता है,
घ) जो अपने आप में मुदित रहता है,
ङ) जो अपने सुख के लिये किसी पे आश्रित नहीं है,
वह ब्रह्म योग युक्त आत्मा है।
1. वह अक्षय सुख को पाता है।
2. वह आनन्द घन हो जाता है।
3. वह नित्य आनन्द को पाता है।
नन्हीं! जो जीव अपने स्वरूप में स्थित होता है, उसे बाह्य विषयों से सुख की ज़रूरत नहीं रहती। तन को बाह्य विषयों के सुख दु:ख का अनुभव होता है। तन मन और इन्द्रिय संयोग से स्पर्शमात्र विषयों से वह सुख दु:ख तो प्राप्त करता है, परन्तु उन सबके प्रति नित्य उदासीन रहता है।
आत्मा का स्वरूप :
1. आत्मा तो विषयों से परे है, आत्मा तो तन नहीं।
2. आत्मा तनो इन्द्रियगण पर आश्रित नहीं है।
3. आत्मा का स्वरूप नित्य आनन्द नहीं है।
जब जीव तनत्व भाव को छोड़कर आत्मा में स्थित हो जाता है तब उसे लौकिक सुख दु:ख छू नहीं सकते। तब वह मानो अपने आप में आप ही सुखी हो जाता है और अपने आप में आप ही तृप्त हो जाता है।
नन्हीं! आत्मा चाहना रहित और निर्विकार है। मन के विकार ही जीव को दु:खी करते हैं। जब जीव मन से संग ही छोड़ देता है तो दु:ख कैसे होगा? तब वह अपने स्वरूप में स्थित, नित्य आनन्द में रहता है।