अध्याय २
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।।३५।।
अपकीर्ति के विषय में भगवान आगे कहते हैं कि अर्जुन! जन्म जन्म जो अपकीर्ति होगी, सो तो होगी ही, किन्तु अब भी :
शब्दार्थ :
१. महारथी लोग भय के कारण
२. तुझे रण से भागा हुआ मानेंगे,
३. जिनके आगे तू आज बड़ा मान्यवर है,
४. उनके आगे ही तू तुच्छता को पायेगा।
तत्व विस्तार :
अब भगवान कहते हैं :
तुम यदि रण से भाग गये तो,
क) वे लोग, जो आज तेरा आदर करते हैं, वही कल तेरा अनादर करेंगे।
ख) वे लोग, जो तुझे आज माननीय समझते हैं, वही तुझे तुच्छ समझेंगे।
ग) जो लोग आज तुम्हारा विश्वास करते हैं, वे तुम्हारा विश्वास नहीं करेंगे।
घ) जो लोग आज तुम्हें श्रेष्ठ मानते हैं, वे फिर तुम्हें श्रेष्ठ नहीं मानेंगे।
ङ) जो लोग आज तुम्हारी बात मानते हैं, वे आगे से तुम्हारी बात नहीं मानेंगे।
च) जो तुम्हें आज सिद्धान्तपूर्ण मानते हैं, वे तुम्हें घृणा की दृष्टि से देखेंगे।
छ) महारथी तुझे भय के कारण युद्ध से भागा हुआ मानेंगे।
भई! यह तो लोग कहेंगे ही! यही नहीं, ज़रा सोचो तो, तुम्हारे आन्तर में क्या होगा! तुम :
1. अपनी नज़रों से भी तो गिर जाओगे।
2. तुम्हारा ही मन तुम्हें नित्य धिक्कारेगा।
3. तुम अपना सीस पुन: उठा नहीं पाओगे।
4. एक बार असत् के सामने झुक गये, तो अनेकों बार झुकना पड़ेगा।
5. एक बार असत् के सामने झुक गये तो अनेकों बार अपने सिद्धान्त त्याग कर असत्पूर्ण अन्याय से समझौता करना पड़ेगा।
6. सत्पूर्ण जीवन कैसे व्यतीत कर सकोगे?
7. जब ज़माने भर में तुम्हारा अनादर होगा, तब तुम्हारा मन तड़प जायेगा।
8. तुम्हारा ही मन तुम्हारी ही बुद्धि की इज्ज़त नहीं करेगा।
9. ध्यान लगा कर देखो! तुम सच ही लघु हो जाओगे और अपने सिद्धान्तों से गिर जाओगे।
साधक लोग चाहे लोगों के किये हुए मान अपमान से नहीं डरते, किन्तु अपने सिद्धान्तों की रक्षा वे अपने प्राणों की बाज़ी लगा कर भी करते हैं। वे तो सत् के संरक्षण के लिये अपने प्राण मुसकराते हुए न्योछावर कर देते हैं।
साधक तो कहता है, ‘हे भगवान! अपमान, अपकीर्ति, दु:ख दर्द से चाहे मेरी झोली भर दे, इसकी कोई बात नहीं, लेकिन तुम्हारे नाम पर मैं कहीं कलंक न बन जाऊँ, यह मुझे याद रहे। तुम्हारे गुणों के दासों का मैं दास बन कर रहूँ और उन दासों के संरक्षण में मेरे प्राण भी चले जायें, तो मैं अपना धन्य भाग्य समझूँगा।’