अध्याय २
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।३३।।
अब भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. यदि तू इस धर्म युद्ध को नहीं करेगा,
२. तो स्वधर्म और कीर्ति को मार कर,
३. तू केवल पाप को प्राप्त होगा।
तत्व विस्तार :
अर्जुन! आज युद्ध भय से व्याकुल होने के कारण अज्ञान, मोह से बंध कर और शोक चिन्ता युक्त होकर,
1. गर तू युद्ध से पलायन करेगा,
2. युद्ध से उपराम होने के यत्न करेगा,
3. गर तू रणभूमि छोड़ कर भाग जायेगा और निज धर्म से नाता तोड़ देगा,
4. आज तक तूने अन्याय के विरुद्ध अनेकों युद्ध लड़े, परन्तु आज नाते रिश्तों को सम्मुख खड़े देखकर यदि तू अपना कर्तव्य छोड़ देगा और निज स्वभाव के ही विपरीत चलेगा, तब तू :
क) स्वधर्म घातक बन जायेगा।
ख) निज कीर्ति घातक बन जायेगा।
ग) यह मान जो तव कुल का है, यह भी इक पल में मिट जायेगा।
घ) तुम्हारे कुल पर कलंक लग जायेगा, इससे बड़ा और क्या पाप हो सकता है?
भय के कारण तू धर्म भूल गया है। निज स्वभाव भी भूल गया है और जग के प्रति धर्म भी भूल गया है। भगवान कहते हैं, यदि तू यह धर्मयुद्ध नहीं करेगा, तो तू पाप को प्राप्त होगा।
पाप :
नन्हीं! प्रथम पाप को समझ ले!
पाप का अर्थ है अशुभ कर्म, अनिष्ट कर कर्म, कुकर्म, नीच या अशुद्ध कर्म, दूसरों को दु:ख या कष्ट देना, दूसरों के प्रति अपराध करना इत्यादि। हर आसुरी गुण तथा तमो और रजोगुण का आधार ही पाप है। अहंकार ही पाप है।
यहाँ भगवान तनिक आगे बढ़ गये और कहने लगे :
1. पापी से युद्ध न करना भी पाप है।
2. दूसरों को अत्याचार करते हुए देख कर चुप रहना भी पाप है।
3. फिर जब आप किसी के अत्याचारों को रोक सकते हैं और नहीं रोकते, तो यह और भी बड़ा पाप है।
4. पापी का साथ देना तो कभी नष्ट न होने वाला पाप है।
ऐसे पाप करने वाले अधर्मी ही होते हैं। वे अपने धर्म को भी नष्ट करते हैं और अपनी कीर्ति को भी खो बैठते हैं।
भगवान अर्जुन को यह सब बतलाते हुए कहते हैं; “अर्जुन! इसलिये तू युद्ध कर, यही तेरा धर्म है।”
नन्हीं! यदि हम पापी को पाप करते देख कर उसे बंद नहीं करेंगे, संसार की दृष्टि में तो जो गिरेंगे, सो गिरेंगे ही, अपनी आँखों से ज़रूर गिर जायेंगे।