Chapter 4 Shloka 36

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।।३६।।

 

Now see what Bhagwan says:

Even if you are the worst of sinners you can,

without a doubt, transcend all sins,

embarked on the raft of divine knowledge.

 

Chapter 4 Shloka 36

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।।३६।।

Now see what Bhagwan says:

Even if you are the worst of sinners you can, without a doubt, transcend all sins, embarked on the raft of divine knowledge.

Little one, after saying that if the wise seer imparts his knowledge to you, your moha will be destroyed and you will become an Atmavaan, the Lord now says, “No matter how fallen a sinner you are, knowledge received through the Atmavaan will emancipate you from all your sins.”

Understand now what ‘emancipation from sins’ connotes:

1. Renunciation of the idea ‘I am the body’.

2. Once one no longer claims the body as one’s own, doership has no meaning – then who inherits the seeds of demerit or virtue?

3. When union with the Atma is achieved, detachment with the body is inevitable.

4. When the bond with the body is broken, then there is no bond with its faculties and attributes.

5. Of what consequence then is the name of this body?

6. When no relationship with the body exists, there is no claim over the sense organs.

7. If no relationship with the body exists, then even the consequence of one’s actions no longer matters.

8. Then the ‘I’ no longer has any purpose to fulfil through the body.

Little one, imagine just for a little while, that you are not the body. Forget the body idea for just a short while. If you find this difficult, try to imagine the state of an Atmavaan devoid of ‘I’ – because that Atmavaan does not consider the body to be his own, he does not incur any sin. No matter what atrocities are inflicted upon him, that Atmavaan simply watches the body being afflicted from afar as a non-participating witness. He is completely detached, no matter what his body receives from the world.

He acts in the world like any ordinary being, but he is untouched by all actions and totally detached from them. He may appear to be very involved, but if you look closely, you will realise that he is completely uninvolved.

अध्याय ४

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।।३६।।

नन्हीं! देख भगवान क्या कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. यदि, तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है।

२. तो भी ज्ञान रूपा नौका द्वारा, नि:सन्देह तू सम्पूर्ण पापों से तर जायेगा।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! भगवान अभी कह कर आये हैं कि यदि तत्वदर्शी तुझे ज्ञान देगा, तब तुम्हारा मोह नष्ट हो जायेगा और तुम आत्मवान् हो जाओगे।

अब भगवान कह रहे हैं कि यदि तू सम्पूर्ण पापियों से भी अधिक पापी है, तो भी उस आत्म तत्वदर्शी आत्मवान् के दिये हुए ज्ञान की नौका द्वारा तू सारे पापों से तर जायेगा।

मेरी नन्हीं सी लाडली, सुन! ‘पापों से तर जाने’ से अभिप्राय समझ :

क) तनोभाव का त्याग कर देना।

ख) तन, जिसे अपना कहता था, जब उसका ही त्याग कर दिया तो तन के कर्म कौन अपनायेगा? तब तन के पुण्य और पाप कौन अपनायेगा?

ग) जब आत्मा से योग हो गया तो तन से वियोग हो ही जायेगा।

घ) नन्हीं! जब तन से ही नाता टूट जाता है तो तन के सम्पूर्ण विशेष गुणों से भी नाता स्वयं ही टूट जाता है।

ङ) जब तन से ही नाता नहीं रहता, तो तन के नाम से भी नाता नहीं रहता।

च) जब तन से ही नाता नहीं रहता, तब तन तथा इन्द्रियों के प्रति भी ममत्व भाव नहीं रहता।

छ) जब तन से ही नाता नहीं रहता, तो तन के कर्मों के परिणाम से भी नाता नहीं रहता।

ज) जब तन से ही नाता नहीं रहता, तो तन से ‘मैं’ को कोई प्रयोजन नहीं रहता।

नन्हीं! थोड़ी देर के लिये कल्पना तो करके देखो कि तुम तन नहीं हो; थोड़ी देर के लिये अपने तनत्व भाव को भूल कर तो देखो! गर यह नहीं होता, तो ‘मैं’ से रहित किसी आत्मवान् की उपमा को समझ कर देख लो। चलो, अभी इतना ही जान लो, कि आत्मवान् तन को नहीं अपनाते। इसी कारण भगवान कहते हैं, कि वह तन के पापों को भी नहीं अपनाते और फिर, उन पर जो भी प्रहार हों, आत्मवान् दृष्टावत् उन्हें देखते रहते हैं। जग के प्रहारों से वे प्रभावित नहीं होते।

नन्हीं! आत्मवान् का तन तो वैसे ही पूर्ववत् जीवन में विचरता रहता है तथा कार्य कर्म करता रहता है; किन्तु तत्पश्चात् उनका अपना कोई प्रयोजन नहीं रहता। संसार में उनके तन को क्या मिला या क्या न मला, इसके प्रति वह उदासीन हो जाते हैं। देखने में उनका तन भी साधारण व्यक्ति जैसे ही काज कर्म करता है, पर वास्तव में वह तन के कर्मों के प्रति भी उदासीन तथा विरक्त होते हैं। देखने में वह चाहे लोगों जैसे आसक्त जान पड़ते हैं, किन्तु ध्यान से देखो, तो वे नितान्त निरासक्त होते हैं।

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