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Chapter 4 Shloka 35
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।३५।।
Lord Krishna says that the knowledge the true seeker receives
from That Enlightened One will be as follows:
O Arjuna! Knowing which, you will no longer
be afflicted by moha and with the aid of which
you will see all beings within yourself and in Me.
Chapter 4 Shloka 35
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।३५।।
Lord Krishna says that the knowledge the true seeker receives from That Enlightened One will be as follows:
O Arjuna! Knowing which, you will no longer be afflicted by moha and with the aid of which you will see all beings within yourself and in Me.
Bhagwan says, “When the Realised Guru is pleased with you He will give you that Supreme knowledge, knowing which, you shall become an Atmavaan. Then you will see all beings in yourself and in Me.” Then your moha will be eliminated.
In other words:
1. Your illusions about birth and death will vanish.
2. The attachment that has arisen within you upon seeing your friends and relatives, will subside.
3. This moha, which is preventing you from your duty in this battle, will disappear.
4. The moha that is causing you anxiety and sapping your limbs of all strength, will disappear and you will regain your strength.
5. Then your confusion regarding your duty will disappear.
6. When this moha is annihilated, you will renounce your identification with the body and you will be one with your True Self – the Atma.
7. You will renounce the body idea and become an Atmavaan.
8. You will see that all the people who stand opposite you in the battlefield are mere statues of clay, monitored by their respective gunas.
9. You will realise that you too, are being led into action by your gunas.
10. This body which you consider your own, is a creation of the threefold nature of Prakriti.
11. Seeing all as an objective witness, you will realise that the substratum of all beings is the Atma itself, for they are nothing but the Atma and you too, are nothing but Atma.
12. From this angle, you will realise each one is, in essence, that formless Non-doer, embodied.
13. You will realise that each one is performing actions only on account of the gunas.
14. Thus, the real doers are the inert gunas – all else is the Atma:
– then you will know all beings as that essential Self of all.
– From the point of view of the Atma, you will realise the intimate relationship between all beings and you will know them all as one within you.
Then the Lord states, “Thereafter, Knowing Me as the Formless Essence of the Atma, you will see everyone as abiding within Me.”
Little one:
1. The Atmavaan knows all to be the Atma.
2. He knows that all bodies are constituted of the gunas, bound by the gunas and dependent on the gunas.
3. In a futile bid, the ‘I’ has individualised this inert creation of Prakriti, the body.
4. The birth of the individualised ‘I’ is the primal folly.
5. The ‘I’ is the cause of moha and renders the individual blind and unconscious to the Truth for life.
When the individual realises that the Atma is the only Truth and that all are in essence That Atma, he recognises that all beings are essentially that indivisible, eternal Essence. All else is a play of Prakriti.
1. In Prakriti’s creation of the body, ‘I’ and ‘mine’ are mere illusions.
2. The illusionary concept of ‘I’ has captivated even the intellect.
3. This illusionary concept of ‘I’ has caused great confusion through the sense organs.
4. This illusionary concept of ‘I’ has erected an imaginary world of its own within the mind.
The Atmavaan watches all this silently. Knowing that all is the Atma, what can he say and to whom?
अध्याय ४
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।३५।।
अब भगवान कहते हैं, वह ज्ञानी तुम्हें जो ज्ञान देगा, वह ऐसा होगा :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! जिसे जान कर तू फिर ऐसे मोह को प्राप्त नहीं होगा,
२. और जिससे तू समस्त भूतों को अपने में और मुझमें देखेगा।
तत्व विस्तार :
अब भगवान कहते हैं कि, ‘जब तुझसे प्रसन्न होकर, वह तत्वदर्शी तुझे ज्ञान देगा, तब तू आत्मवान् बन कर सम्पूर्ण प्राणियों को अपने में और मुझमें देखेगा। तब जो मोह तुझे इस पल घेरे हुए है, वह मोह भी नष्ट हो जायेगा।’ यानि :
1. जन्म तथा मृत्यु के बारे में जो तुझे भ्रम है, वह नष्ट हो जायेगा।
2. सम्बन्धियों को देख कर, आसक्ति के कारण तुझे जो मोह उठ आया है, सब नष्ट हो जायेगा।
3. तू जिस मोह के कारण कर्तव्य विमूढ़ हो गया है, वह मोह ख़त्म हो जायेगा।
4. मोह के कारण जो व्याकुलता मन में उठ रही है, इसका नाश हो जायेगा।
5. व्याकुलता के कारण जो तुम्हारे अंग शिथिल पड़ गये हैं, वे भी सब ठीक हो जायेंगे।
6. तब तुम तन से तद्रूपता को छोड़ कर अपने वास्तविक स्वरूप, आत्मा में लीन हो जाओगे।
7. तब तुम तनत्व भाव त्याग कर आत्मवान् बन जाओगे।
8. फिर तुम यह राज़ जान लोगे कि जो लोग तुम्हारे सम्मुख खड़े हैं, ये सब गुण बंधे माटी के बुत ही हैं, इनके कर्म भी इनके बस में नहीं हैं।
9. जिस तन को तुम अपना कहते आये हो, वह भी गुण बंधा स्वत: कार्य प्रवृत्त हो रहा है।
10. जिस तन को तुम अपना कहते आये हो, वह भी त्रिगुणात्मिका शक्ति रचित मात्र है।
11. तब तुम दृष्टा बन कर सब प्राणियों को आत्म स्वरूप ही जानोगे, क्योंकि वह भी आत्मा के सिवा कुछ भी नहीं और तुम भी आत्मा के सिवा कुछ भी नहीं।
12. तब तुम यह जान लोगे कि वास्तव में सब तनधारी निराकार अकर्ता ही हैं।
13. तब तुम यह भी जान लोगे कि वास्तव में सब तनधारी, गुण प्रपंच के कारण ही सब कुछ कर रहे हैं।
14. तब तुम यह भी जान लोगे कि कर्म कर्ता केवल जड़ गुण ही हैं और बाकी सब अखण्ड आत्मा हैं :
क) तब तुम सबको आत्म स्वरूप ही जानोगे।
ख) आत्म के नाते सब तनों को अपने आप में एक जानोगे।
फिर भगवान कहते हैं, ‘तब तुम मुझे भी आत्म स्वरूप निराकार जान कर सबको मुझमें देखोगे।’
नन्हीं! आत्मवान् जानता है कि :
1. सब ही आत्मा हैं।
2. सब तन गुण रचित, गुण बधित तथा गुण आश्रित पुतले हैं।
3. प्रकृति की रचना को, चेतन के आभास के कारण नाहक ‘मैं’ ने व्यक्तिगत कर दिया है।
4. व्यक्तिगत ‘मैं’ का उठ आना ही प्रारम्भिक भूल है।
5. यह ‘मैं’ ही मोह उत्पन्न करती है और जीव को जीवन भर के लिये अंधा तथा मूर्छित बना देती है।
जब जीव जान जाता है कि बस आत्मा ही एक मात्र सत्य है और सब आत्म स्वरूप ही हैं, तब वह पहचान जाता है कि सब अखण्ड, अविभाजनीय, नित्य तत्व ही है, बाकी प्रकृति का खेल हो रहा है।
क) उस तन रूपा प्राकृतिक रचना में ‘मैं’ और ‘मेरा’ केवल कल्पना है।
ख) उस तन रूपा प्राकृतिक रचना में ‘मैं’ और बुद्धि को एक भ्रान्ति कारक ‘मैं’ रूपा मान्यता ने जैसे मोह लिया है।
ग) इस ‘मैं’ रूपा मान्यता ने इन्द्रियों द्वारा भी उपद्रव मचा दिया है।
घ) इस ‘मैं’ रूपा मान्यता ने मन में नवीन तथा कल्पित देश बना दिया है।
आत्मवान् इस स्थिति को देखता ही रहता है। वह कहे भी तो क्या कहे, किसे कहे, क्यों कहे? वह तो पूर्ण को आत्म स्वरूप ही जानता है।