Chapter 4 Shloka 33

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परन्तप।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।३३।।

 

Bhagwan tells Arjuna:

O conqueror of foes!

Gyan Yagya is superior to Dravya Yagya

for all actions without exception

culminate in knowledge.

 

Chapter 4 Shloka 33

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परन्तप।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।३३।।

Bhagwan tells Arjuna:

O conqueror of foes! Gyan Yagya is superior to Dravya Yagya – for all actions without exception culminate in knowledge.

The Lord clarifies that the performance of dravya yagya whereby an individual gives of his material assets, is inferior to the gyan yagya whereby knowledge is disseminated, because all deeds culminate in knowledge.

Little one, in the dravya yagya:

a) material assets are donated in charity;

b) an individual helps the other on the gross plane but does not give of himself;

c) by giving away one’s material possessions, one can at the most become the doer of virtuous deeds;

d) one can earn meritorious fruits, but cannot attain one’s essential Self thus.

The Lord places gyan yagya on a higher plane than dravya yagya, because all actions culminate in knowledge. He who employs knowledge in his practical life:

a) will be freed of the bondages of attachment;

b) his desires will fade away;

c) his ignorance will disappear;

d) his moha will be destroyed.

He who has knowledge and the practice of employing that knowledge in his daily life, will definitely attain Supreme Perfection. Realising his essential Essence through knowledge, he practices renunciation of the body idea in his daily living and becomes an Atmavaan. Where knowledge predominates, the concept of doership will be absent, hence all actions performed will not bind one. One will perform all the tasks throughout one’s life as a non-participating witness and yet remain free of the bondage of karma.

It is possible that after one has performed the gyan yagya, one no longer needs to perform any other yagya. However, little one, it is not only theoretical knowledge which is referred to here. The man of wisdom translates the knowledge he has learnt into practice. Thus, he who has truly practised knowledge in life is released from the bondage of action. All his actions are consumed in the purifying flames of that Supreme Knowledge.

Actually, little one, when such an individual, with the aid of his knowledge, renounces that intellect which is subservient to the body, and he has no further claims upon himself, then how can he remain attached to the actions of that body? Those actions are no longer his – they are a consequence of the play of the gunas. That is why gyan yagya has been considered superior to dravya yagya. The one who has performed gyan yagya will inevitably engage in other yagyas as well, whenever the situation demands, for he possesses the knowledge of all yagyas.

अध्याय ४

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परन्तप।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।३३।।

भगवान अर्जुन से कहने लगे :

शब्दार्थ :

१. हे शत्रु तापन कर अर्जुन!

२. द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है।

३. क्योंकि हे अर्जुन! सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! भगवान अर्जुन से कहने लगे कि द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।

नन्हीं द्रव्य यज्ञ में :

1. जीव स्थूल विषय दान करता है।

2. जीव स्थूल में लोगों की मदद करता है, परन्तु वह अपने आपको नहीं देता।

3. लौकिक विषय दे भी दिये तो केवल कल्याणकारी कर्मों के कर्ता बन सकते हैं, केवल पुण्य कर्म कर्ता ही बन गये।

4. द्रव्य यज्ञ राही जीव पुण्य कर्म करता हुआ पुण्य फल तो पा जाता है, परन्तु स्वरूप को पाना कठिन है।

भगवान कहने लगे, ‘ज्ञान यज्ञ द्रव्य यज्ञ से श्रेष्ठ है, क्योंकि सम्पूर्ण कर्म इसमें समाप्त हो जाते है।’ यदि जीव ज्ञान को जान ले और अपने जीवन में उसका अभ्यास आरम्भ कर दे तो :

क) संग का अभाव हो सकता है।

ख) कामना का अभाव हो सकता है।

ग) अज्ञान मिट सकता है।

घ) मोह का नाश हो सकता है।

ज्ञान भी हो और उस ज्ञान का जीवन में यज्ञ रूप अभ्यास भी हो, तो निश्चित ही जीव परम सिद्धि पा सकता है। ज्ञान राही अपना स्वरूप जान कर जीवन में तनत्व भाव अभाव का अभ्यास करता हुआ तू आत्मवान् बन सकता है। ज्ञान की प्रधानता में जो भी तुम करोगे, वह कर्तृत्व भाव अभाव के कारण बन्धन नहीं बनेगा। ज्ञान के आसरे निरासक्त भाव से जो भी यज्ञ करोगे, वह आपके लिये बंधनकारक नहीं बनेंगे। तब आप केवल साक्षी बन कर जीवन के सम्पूर्ण काज करते हुए भी कर्मों से बधित नहीं होंगे।

ज्ञान यज्ञ करने के पश्चात् हो सकता है आपको अन्य यज्ञ करने की ज़रूरत ही न पड़े।

किन्तु नन्हीं! यहाँ केवल शब्द ज्ञान की बात नहीं कह रहे। यह तो उस ज्ञानी की बात कह रहे हैं, जो ज्ञान को समझ कर उसे अपने जीवन में प्रमाणित करते हैं। ज्ञान का सच्चा अभ्यास करने वाला कर्मों से विमुक्त हो जाता है, क्योंकि कर्म उस ज्ञान में भस्म होकर समाप्त हो जाते हैं। तब कर्म उस ज्ञान के परिणाम से बंधते नहीं।

वास्तव में नन्हीं! जब जीव ज्ञान के आसरे देहात्म बुद्धि का ही त्याग कर देता है तथा अपने आपको भी नहीं अपनाता, तब वह तन के कर्मों से संग कैसे करेगा? तब वह कर्म उसके नहीं रहते, वह गुणों का खिलवाड़ मात्र रह जाते हैं। इसी कारण, ज्ञान यज्ञ को द्रव्य यज्ञ से श्रेष्ठ कहा है। ज्ञान यज्ञ करने वाला, अन्य सब यज्ञ भी, जब जब परिस्थिति आयेगी, स्वत: ही करेगा, क्योंकि उसके पास सम्पूर्ण यज्ञों का ज्ञान तो होगा ही।

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