अध्याय २
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।५३।।
शब्दार्थ :
१. जब तेरी, अनेक श्रुति प्रतिपादित सिद्धान्तों से उपलब्ध बुद्धि,
२. अचल समाधि में स्थिर हो जायेगी
३. तब तू समत्व योग को प्राप्त होगा।
तत्व विस्तार :
1. शास्त्र प्रतिपादित ज्ञान जब जीवन में तूने अपना लिया, जब तू उसे इस्तेमाल करने लगेगा तब तू सत् बुद्धि पायेगा।
2. निज तन से संग त्याग कर तू जब मोह से रहित हो जायेगा, तब तू सत् बुद्धि पायेगा।
3. जब तू अपने प्रति उदासीन हो जायेगा, तब जो बुद्धि तुझे मिलेगी वह स्थिर बुद्धि होगी।
4. तुझे जग से जब कुछ नहीं चाहिये होगा, तब जो बुद्धि तुझे मिलेगी, वह स्थिर बुद्धि होगी।
5. तुम्हारे लिये जग है ही नहीं, यानि तुझे जग से कुछ मिले न मिले, तू नित्य उदासीन होगा।
6. मानो तेरे लिये जग सो गया।
7. यानि अपने लिये तू सो गया है, जग तो अपने आप में मस्त होता ही है।
8. तू जग के लिये नित जाग रहा होगा। तूने अपने तन को छोड़ दिया तब वह लोगों के काज करेगा।
9. तू जग का है, जग तेरा नहीं, उस स्थिति में तुम जग से कुछ नहीं माँगोगे।
10. तू सबका है, पर कोई तेरा नहीं होगा क्योंकि तू ममत्व भाव रहित होगा।
11. तेरा हक़ किसी पे नहीं रहेगा, औरों का तुम्हारे ऊपर चाहे हक़ रहे।
12. तुझपे सबका हक़ होगा और तू निरपेक्ष सबके काज करता जायेगा।
क) शास्त्रों ने अज्ञान मल जब धो दिया, बाकी ज्ञान स्वरूप रह जाता है।
ख) चाहना रहित वह एकाग्र वृत्ति वाला हो जाता है।
ग) तब वह नित्य समाधिस्थ हो जाता है।
घ) अचल और अखण्ड समाधि की कहते हैं कि वह तब होती है जब सुनी हुई बातों से भी बुद्धि प्रभावित नहीं होती।
नन्हीं! जब तक जीव तनत्व भाव से परे नहीं हो जाता, तब तक शास्त्र कथित ज्ञान ही जीव को सत् में स्थित करा सकता है; किन्तु गर वह आत्मा से संग करके आत्म तत्व की ओर बढ़ता है तब उसे शास्त्र कथित सतोगुण को भी त्यागना पड़ता है। उसे शास्त्र कथित सतोगुण का अभ्यास करते हुए, जिन कर्म प्रणालियों और जिन मान्यताओं में वह बंध गया है, उन्हें भी त्यागना ही पड़ता है।
जीव के सिद्धान्त भी अपने तन के नाते ही बनते हैं, जीव के सिद्धान्त भी अपने लिये ही होते हैं। उन्हें औरों पर आरोपित करना आत्मवान् का काज नहीं। फिर जब वह अपने तन से ही नाता तोड़ देता है, तब वह किसी और पर अपना सिद्धान्त नहीं मढ़ता। उसे हर बार दूसरों की स्थिति पर उतरना पड़ता है। वह दूसरों के काज करता हुआ और उनसे काज करवाता हुआ, उन्हीं का कल्याण करता रहता है। इस कारण ऐसे को पहचानना अतीव कठिन है। वह अपने स्वरूप के प्रति नित्य मौन रहता है और जो उसके सामने आये, उसके तद्रूप होकर काज करता है। तभी उसकी उदासीनता, समता और निर्ममता का प्रमाण मिलता है। उसकी बुद्धि नित्य अविचलित रहती है।
सो भगवान कहते हैं कि जब तू श्रुति से नहीं घबरायेगा, जब अपने ही ज्ञान या सत् पथ की बातें, जो तुमने सुनी और जीवन में करी हैं, उनसे भी प्रभावित नहीं होगा, फिर तेरी बुद्धि नित्य समाधि स्थित होगी। तत्पश्चात् तू योग को पायेगा, तुम्हारी बुद्धि अपनी ही मान्यता से और अपने ही गुणों से नित्य अप्रभावित होगी, तब तू :
1. विभ्रान्त कभी नहीं होगा।
2. चलायमान कभी नहीं होगा।
3. संशययुक्त कभी नहीं होगा।
4. नित्य निर्विकार होगा।
5. अचल समाधि को पायेगा।
6. आत्मा से योग को पायेगा।