अध्याय १
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।३२।।
अर्जुन भगवान कृष्ण से कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. हे कृष्ण! मैं विजय नहीं चाहता
२. और राज्य तथा सुखों को भी नहीं चाहता।
३. हे गोविन्द!
४. हमको राज्य से क्या प्रयोजन है,
५. अथवा भोगों से तथा,
६. जीवन से भी क्या प्रयोजन है?
तत्व विस्तार :
देख नन्हीं! अर्जुन युद्ध करने से घबरा गये। उन्होंने पहले तो विजय, राज्य, भोग और सुख चाह कर ही :
क) युद्ध की तैयारी की होगी।
ख) लोगों से सहायता मांगी होगी।
ग) बरसों अस्त्र शस्त्र चलाने का अभ्यास किया होगा।
घ) युद्ध करने की नीतियाँ बनाई होंगी।
ङ) बहु द्रव्य एकत्रित किया होगा।
च) बहु यज्ञ किये होंगे।
छ) बहु वीरों को शस्त्र विद्या सिखलायी होगी।
ज) बहु वीरों को उत्तेजित किया होगा।
झ) ‘हम ही न्याय पूर्ण पथ पर हैं’ सबको प्रमाणित किया होगा।
ञ) युद्ध के लिये बहुत प्रकार के सामान एकत्रित किये होंगे।
ट) कितनी ही कठिनाईयाँ सही होंगी।
ठ) कितनी ही समस्यायें हल करी होंगी। फिर अब क्या हुआ?
वह पहले से ही जानते थे कि इन लोगों के साथ, अर्थात् अपने ही सम्बन्धियों तथा गुरुजनों के साथ युद्ध करना है। धृतराष्ट्र ने जब संजय को पाण्डवों के पास भेजा तो उसने भी यही कहा था कि :
1. युद्ध नहीं करना चाहिये।
2. पिता के तुल्य नातेदारों को कैसे मार सकोगे?
3. गुरु तुल्य गण को भी कैसे मार सकोगे?
4. दुर्योधन तो मूर्ख है परन्तु आप तो मूर्ख नहीं बनो!
5. तुम लोग धर्मवीर हो, सो धर्म को निभाओ और युद्ध न करो।
6. तुम लोग श्रेष्ठ हो, अपने साधुत्व को मत छोड़ो।
यह सब सुन कर भी पाण्डवों ने युद्ध की तैयारी कर ली। तत्पश्चात् क्या हुआ?
क) मोह जागृत हो गया।
ख) अपने स्वभाव के विरुद्ध जाने लगे। एक ओर वह योद्धा, क्षत्रिय स्वभाव वाले थे तथा दूसरी ओर दैवी सम्पद् सम्पन्न साधु स्वभाव वाले थे।
ग) अपने ही कुल श्रेष्ठ तथा पूज्य गणों को सामने देख कर उनमें साधुता के गुण और कर्तव्य भाव उठ आया।
घ) जहाँ झुकने की आदत थी, वहाँ सीस ने मानो उठने से इन्कार कर दिया।
ङ) जहाँ नित्य आज्ञा पालन का स्वभाव था, वहाँ आज संग्राम कैसे कर सकते थे?
ऐसी परिस्थिति में जब मन पलायन करना चाहता है, वह ज्ञान का आसरा लेता है और कर्तव्य का अर्थ ही बदल देता है। वह कहता है कि हम राज्य नहीं चाहते, सुख भी नहीं चाहते, विजय भी नहीं चाहते। ये सब बातें तो दूर रहीं, हम जीना भी नहीं चाहते। हर व्याकुल और तड़पा हुआ जीव ऐसा ही कहता है। इसी प्रकार जब हम पर मोह का आवरण पड़ता है :
1. तब हम सत्य की राह भूल जाते हैं।
2. तब हम ज्ञान का अर्थ बदल देते हैं।
3. तब हम बहाने लगाते हैं।
4. तब हम मिथ्या सिद्धान्तों पर आधारित तर्क तथा वितर्क करते हैं।
यहाँ अर्जुन ने भगवान को गोविन्द कहकर पुकारा :
गोविन्द + गो = विन्द्।
‘गो’ कहते हैं, आकाश के नक्षत्र समूह को, प्रकाश की किरण को, इन्द्र के वज्र को, सरस्वती या ब्रह्म वाणी को, इन्द्रियों को, तनोशक्ति को, सर्वोत्तम धन को, बिजुरी को, पृथ्वी को, दिशाओं को।
‘विन्द्’ का अर्थ :
पालन करने वाला पति, संरक्षण करने वाला|
इस प्रकार गोविन्द का अर्थ :
सर्वज्ञ, ज्ञान घन और इन्द्रियपति समझ लो। अर्जुन ने अपने सारथी कृष्ण को गोविन्द कहा।
आभा नन्हीं! जब इन्सान ज्ञान की बातें करता है तब भगवान के नाम पर ही करता है, चाहे वह ठीक कहे या ग़लत! फिर कृष्ण को तो अर्जुन श्रेष्ठ मानते ही थे। ध्यान से देख! जब मन घबरा जाता है और अपनी हार्दिक निहित चाहना की पूर्ति होते नहीं देखता, तब वह जीवन से ही निराश हो जाता है और कहता है कि हमें जीवन से क्या प्रयोजन? यह सब बुद्धि की न्यूनता के कारण ही होता है। जब बुद्धि मोह से आवृत हो जाती है, जब जीव ‘किम् कर्तव्य विमूढ़’ हो जाता है।