अध्याय २
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।:
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।२४।।
भगवान फिर से आत्मा की बातें कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. यह आत्मा अच्छेद्य है।
२. यह आत्मा अदाह्य है।
३. यह आत्मा अक्लेद्य है।
४. यह आत्मा नित्य है।
५. यह आत्मा अशोष्य है।
६. यह आत्मा नित्य सर्व व्यापक है।
७. यह आत्मा स्थिर रहने वाला और सनातन है।
तत्व विस्तार :
भगवान कहते हैं :
1. आत्मा अच्छेद्य है, अर्थात् :
क) जो कट न सके।
ख) जो टूट न सके।
ग) जिसका अभाव न हो सके।
घ) जिसकी असफ़लता नहीं हो सकती।
ङ) जिसका अन्त नहीं हो सकता।
2. अदाह्य है, अर्थात् :
क) जो जलने योग्य न हो।
ख) जो भड़क उठने योग्य न हो।
ग) जो भस्म भी न हो सके।
घ) जो पीड़ा न दे।
ङ) जो सन्तापित न करे।
3. अक्लेद्य अर्थात् :
क) जो गीला न हो सके।
ख) जिसे कष्ट न हो सके।
ग) जिसे दुःख न हो सके।
घ) जिसे पीड़ा न हो सके।
4. अशोष्य का अर्थ है :
क) जो सूख न सके।
ख) जो कुम्हला न सके।
ग) जो मुरझा न सके।
घ) जो चूसा न जा सके।
यह सब कह कर भगवान इतना ही दोहरा रहे हैं कि आत्मा में कदापि कोई परिवर्तन नहीं आता। आत्मा तो नित्य ही अप्रभावित रहता है। जल, अग्न, वायु और पृथ्वी के गुण आत्मा में नहीं होते, तथा यह महाभूत आत्मा को अपने गुणों से प्रभावित नहीं कर सकते।
फिर कहते हैं, यह आत्मा नित्य है, सर्व व्यापक है, अचल है, स्थिर रहने वाला है, सनातन है।
इन सबके विपरीत गुण तन के होते हैं। यह तन :
1. न ही सनातन है।
2. न ही अचल है।
3. न ही सर्वस्थित है।
4. न ही नित्य रहने वाला है।
5. भई! इस तन की उम्र तो थोड़ी सी होती है।
6. इस तन को पंच तत्व ही बनाते हैं।
7. इस तन को तो पंच तत्व नित्य प्रभावित करते रहते हैं।
यह सब कह कर मानो भगवान कह रहे हों कि, ‘अर्जुन! तू तो तन नहीं, तू तो आत्मा है। तू तन से संग क्यों करता है? अपने आत्म स्वरूप के तद्रूप हो। तू नित्य सनातन, सर्व व्यापक तत्व का अंश है। अपने आपको इस मृत्युधर्मा तन से क्यों बांधे बैठा है?’
मोह :
देख नन्हीं! जब तक जड़ तन राही संसार को देखने के यत्न करती रहेगी, तब तक कुछ नहीं दिख सकेगा। मोह अपने ही तन से होता है। जब अपने तन से संग हो जाये, या अपने आपको तन ही मानने लग जाओ, यह मोह के कारण ही होता है।
1. यहीं मोह का जन्म होता है।
2. यहीं अज्ञानता का जन्म होता है।
3. मोह ही आँख वालों को भी अन्धा कर देता है।
4. इस मोह के कारण ही जीव अपने स्वरूप को भी नहीं समझ सकता।
5. इस मोह के कारण ही जीव अपनी तनो स्थापना को ही महत्व देता है।
6. इस मोह के कारण ही धर्म का नाश होता है।
7. इस मोह के कारण ही जीव कर्तव्य से होना चाहता है।
8. मोह प्रथम अपने तन से होता है और फिर तन के नाते बन्धु तथा मित्र गण की ओर बढ़ता है।
9. इस मोह के कारण ही जीव न्याय नहीं कर सकता।
10. इस मोह के कारण ही जीव व्यक्तिगत हो जाता है।
11. इस मोह के कारण ही जीव लोभ तथा कामना प्रधान बन जाता है।
12. इस मोह के कारण ही जीव आसुरी गुणों वाला बन जाता है।
13. इसी मोह के कारण ही जीव के मन में व्याकुलता, शोक, क्षोभ उत्पन्न होते हैं।
14. इसी मोह के कारण ही जीव का चित्त अशुद्ध हो जाता है।
15. यह मोह ही तो जड़ चित्त ग्रन्थियों को उत्पन्न करता है।
सो नन्हीं! सम्पूर्ण मनोविकारों का कारण तनोतद्रूपता है, या कह लो अपने वास्तविक आत्म स्वरूप की विस्मृति है। इसलिये भगवान बार बार अर्जुन को आत्मा की बातें बता रहे हैं। सब बता कर उसे तनत्व भाव से परे करने के यत्न कर रहे हैं।
जब जीव तन से परे होने लगे, तो चित्त :
क) नितान्त शान्त हो जाता है।
ख) मनोविकार रहित हो जाता है।
ग) क्षोभ रहित हो जाता है।
घ) द्वन्द्व रहित हो जाता है।
ङ) शोक रहित हो जाता है।
अर्जुन की बीमारी भी तो यही थी, इसका इलाज भगवान स्वयं कर रहे हैं।
नन्हीं! हर इन्सान की बीमारी यही है और हर इन्सान का इलाज इसी तत्व ज्ञान सार में निहित है।