Chapter 3 Shloka 39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।३९।

Bhagwan continues:

O Arjuna! Knowledge is covered

by this insatiable fire of desire –

the eternal foe of the man of wisdom.

Chapter 3 Shloka 39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।३९।

Bhagwan continues:

O Arjuna! Knowledge is covered by this insatiable fire of desire – the eternal foe of the man of wisdom.

The Lord condemns rajoguna and the desire born of rajoguna and says that the fire of desire is difficult to extinguish and acts as a veil over a wise man’s (gyani’s) knowledge.

Why does the Lord call one whose knowledge is thus veiled, a gyani? Arjuna had asked, “What prompts a man to sin – even though unwilling, as if perforce?” In other words, why does he become so helpless that he cannot stop himself? Little one, such a one possesses knowledge, but that knowledge is cloaked because:

a)  he is still identified with his body;

b)  his doership still persists;

c)  he is not established in the spirit of yagya;

d)  he knows the difference between right and wrong but has not put this into practice in his actions;

e)  he has acquired much knowledge, but that knowledge has not yet become a fire in which his attachments could be consumed;

f)   he can talk about the state of desirelessness, but he is not desireless.

g)  externally he may appear to be a sadhu, but in his mind he still enjoys the objects he has renounced;

h)  even though he may have acquired all the knowledge, if the memory of sense objects pervades the mind, the individual lives in illusion and even his knowledge does not bear fruit.

Little one, if you do not translate knowledge into your practical life, your knowledge will not gain strength. Then rajoguna will erupt time and again, and this enemy of the gyani will veil his knowledge.

This rajoguna, replete with desire and greed, will constantly strengthen the individual’s cravings.

अध्याय ३

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।३९।

आगे भगवान कहने लगे कि :

शब्दार्थ :

१. हे अर्जुन! ज्ञानियों की नित्य वैरी

२. और कठिनता से तृप्त होने वाली इस काम रूप अग्नि से

४. यह ज्ञान ढका हुआ है।

तत्व विस्तार :

भगवान रजोगुण तथा रजोगुण से उठने वाले काम की निन्दा करते हुए कहते हैं कि कामना की अग्नि, जो कठिनता से तृप्त होती है, उससे ज्ञानियों का ज्ञान आवृत हो जाता है।

जिसका ज्ञान आवृत हो गया हो, उसे भगवान ने ज्ञानी क्यों कहा?

नन्हीं! अर्जुन ने पूछा था कि ‘यह पुरुष न चाहता हुआ भी किस के द्वारा प्रेरित हुआ बलात्कार से पाप कर बैठता है?’ अर्थात् वह इतना विवश क्यों हो जाता है कि अपने आपको रोक नहीं सकता?

नन्हीं! उसके पास ज्ञान तो है, किन्तु वह आवृत हो जाता है क्योंकि :

1. अभी उसका तनत्व भाव बाकी है।

2. अभी वह अपने को कर्ता मानता है।

3. वह यज्ञमय जीवन में स्थित नहीं हुआ।

4. उसे ज्ञान तो है कि क्या उचित है और क्या अनुचित है, किन्तु उसने कर्म करने का अभ्यास नहीं किया।

5. उसने ज्ञान तो बहुत पाया है, किन्तु उसने ज्ञान की अग्नि जलाकर अपना संग अभी नहीं मिटाया।

6. निरासक्ति की बात तो वह कर सकता है किन्तु वह अभी निरासक्त हुआ नहीं।

7. बाहर से चाहे वह साधु का रूप धर ले, किन्तु मन में विषयों का उपभोग करता रहता है।

8. पूर्ण ज्ञान आ भी जाये, यदि मन में विषयों की याद रहे, तब उस मिथ्याचारी का ज्ञान भी निष्प्राण हो जाता है।

मेरी नन्हीं जान्! यदि ज्ञान को जीवन में परिणित नहीं करोगे, ज्ञान में परिपक्वता नहीं आयेगी। तब यह रजोगुण बार बार उठ आयेगा और ज्ञानियों का यह दुश्मन, ज्ञान को आवृत कर ही देगा।

यह रजोगुण, कामना और लोभ से भरा रुचिकर को पाने की इच्छा को ही पुष्टित करता रहता है।

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