Chapter 3 Shloka 24

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:।।२४।।

The Lord says, O Arjuna!

If I cease to work, the world would perish;

I would be the cause of corrupt conduct among men,

contributing to their destruction.

Chapter 3 Shloka 24

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:।।२४।।

The Lord says, O Arjuna!

If I cease to work, the world would perish; I would be the cause of corrupt conduct among men, contributing to their destruction.

The Lord reiterates here that if He did not perform actions, those who followed His example would also renounce action.

1. They would lose their direction and their dharma would be destroyed.

2. They would lose faith in yagya since the proof of a life lived in yagya would no longer be before them.

3. Virtuous deeds would become extinct.

4. People would turn away from the Atma – their true Self.

5. Dereliction of duty would become rampant.

6. They would become followers of the downward path – the path that leads away from the Atma.

7. Then even aspirants of spiritual living will not be able to comprehend the practical aspect of the unmanifest Truth.

8. They will be unable to translate knowledge into practice.

9. They will regard adharma to be dharma and thus dharma would be destroyed.

10. They would renounce duty and even their virtuous deeds would be destroyed.

Yagya

The Lord has earlier stressed that Arjuna should take refuge in the Lord and then perform yagya, since all actions which do not conform to yagya, lead to attachment and bondage.

1. Selfless actions are sacrificial acts i.e. yagya in action.

2. Actions performed for the Lord will necessarily be devoid of attachment.

3. The Supreme Brahm inheres in all acts of yagya– therefore every aspirant of Brahm must perform selfless acts as an offering to Him.

4. He who partakes of the fruit of yagya becomes sinless.

Who performs yagya?

a) They who seek nothing for themselves from the world.

b) They who seek, neither to know nor attain anything, in this world.

c) They who are devoid of attachment.

d) They who perform all actions including the worship of the Lord without any expectations of personal gain.

The life of such a detached and selfless one is imbued with the spirit of yagya. He performs great deeds and is steeped in knowledge. Whatever such a one does is treated as an example for others to follow.

The Lord now explains that if He Himself did not engage in actions, all men would become varnasankars or corrupted with illegitimate attitudes.

Who are varnasankars?

1. Those who take support of illusory principles.

2. Those whose knowledge becomes barren and confused because they cannot remain detached in the performance of action.

3. Those who are devoid of divine qualities, yet consider themselves to be great – thus such ‘gyanis’ revel in pride rather than become humble.

4. Those who perpetrate sin rather than virtue.

5. Those who dwell in an attitude opposed to yagya.

6. They who use a saintly demeanour to perpetrate vice.

Little one! When such varnasankars predominate, then forgiveness, compassion, love are all destroyed and no bridge of understanding connects knowledge with practical life.

Adhyatam – the highest code of conduct in life, will then be utterly devastated.

When such corrupted souls approach the world, they adulterate unsuspecting society with their erroneous attitudes and example.

a) They lead them away from the Truth.

b) They take them from light to darkness.

c) Watching them, people reject dharma.

d) With their example, people turn away from duty and become escapists.

Little one, these varnasankars:

a) separate knowledge from daily living;

b) may propagate the Lord’s name in words, but do not desire to become like the Lord;

c) do not live in the spirit of yagya themselves and also draw people away from the path of duty;

d) are escapists themselves and encourage others to escape from their normal lives and duties.

The Lord Himself says, “If I do not perform action, people will begin to engage in depraved behaviour and will make life impossible for those who disseminate love, compassion and mercy in the world. Then people’s faith in these divine qualities will vanish and the entire populace will become selfish, merciless, tyrannical and replete with other demoniacal qualities. Therefore, I shall become the cause of the downfall of all.”

It would not be erroneous to say today, “Lord! Your own so called ‘devotees’ have disobeyed Your word and done just what You had told them not to do!”

Little one, the responsibility of the world’s decadent state today rests largely with:

a) Those who take the Lord’s Name and supposedly propagate His Word.

b) Those who use the Lord’s Name to earn their livelihood yet rob people.

c) Those who encourage others to escape from their duties under the garb of dharma.

The world is full of knowledge today, yet there are very few who can illuminate the path of spiritual living through their life’s example. Little one! The Lord has made a very important point in this shloka. It contains the core of sadhana as well as the Lord’s basic Essence. It describes the cause of the problems that beset society today and also the path that can lead man out of this maze of problems.

अध्याय ३

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:।।२४।।

भगवान कहते हैं, हे अर्जुन!

शब्दार्थ :

१. यदि मैं कर्म न करूँ तो यह लोक नष्ट हो जायेगा,

२. मैं संकरों का कर्ता बनूँगा

३. और इस सारी प्रजा को बिगाड़ने वाला बनूँगा।

तत्व विस्तार :

यहाँ भगवान कह रहे हैं, यदि मैं कर्म न करूँ, तो मेरा अनुसरण करने वाले लोग भी कर्म करने छोड़ देंगे।

क) यह लोग तब पथ भ्रष्ट हो जायेंगे।

ख) धर्म नष्ट हो जायेगा।

ग) यज्ञ ख़त्म हो जायेंगे।

घ) संसार में यज्ञमय जीवन का प्रमाण मिट जायेगा।

ङ) शुभ कर्म मिट जायेंगे।

च) लोग आत्म विमुख हो जायेंगे।

छ) लोग कर्तव्य विमुख हो जायेंगे।

ज) लोग प्रेय पथ पथिक हो जायेंगे।

झ) तब साधक गण भी स्वरूप का रूप नहीं समझ पायेंगे।

ण) वे ज्ञान को विज्ञान में परिणित नहीं कर पायेंगे।

ट) वे अधर्म को धर्म का नाम दे देंगे और धर्म का विनाश हो जायेगा।

ठ) वे कर्तव्य त्याग कर देंगे और शुभ कर्म भी ख़त्म हो जायेंगे।

यज्ञ :

भगवान ने कहा कि यज्ञ अर्थ कर्म के अतिरिक्त अन्य सभी कर्म बन्धन कारक होते हैं। इसलिये हे अर्जुन! संग रहित होकर, परमेश्वर के निमित्त कर्मों का भली प्रकार आचरण कर। इससे यूँ समझ ले कि:

1. संग रहित कर्म यज्ञ रूप ही होते हैं, उन्हें करना ही चाहिये।

2. परम अर्थ कर्म यज्ञ रूप ही होते हैं, उन्हें करना ही चाहिये।

3. यज्ञ, संग रहित कर्मों से उत्पन्न होता है।

4. ब्रह्म हर यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं।

5. यज्ञशेष खाने वाला संत सब पापों से विमुक्त हो जाता है।

6. ब्रह्म को पाना हो, तो ब्रह्ममय कर्म करने अनिवार्य हैं।

भाई! यह यज्ञ वे करते हैं :

क) जिन्हें इस संसार से अपने लिये कुछ पाना नहीं होता।

ख) जिनके लिये इस संसार में ज्ञातव्य कुछ नहीं रह जाता।

ग) जिनके लिये इस संसार में प्राप्तव्य कुछ नहीं रह जाता।

घ) जो संग रहित हो जाते हैं।

ङ) जिन्हें अपने लिये कुछ नहीं चाहिये।

च) जो सम्पूर्ण कर्म तथा पूजा निष्काम भाव से करते हैं।

यज्ञमय जीवन निरासक्त का जीवन है, स्वार्थ रहित का जीवन है। भगवान कहते हैं, अनासक्त पुरुष यज्ञ कर्म करता हुआ परमात्मा को पाता है, यानि :

1. वह निरासक्त होता है।

2. वह स्वार्थ रहित होता है।

3. वह श्रेष्ठ कर्म करने वाला होता है।

4. वह ज्ञानवान् होता है।

5. जो वह करता है, उसी को प्रमाण मान कर लोग उसका अनुसरण करते हैं।

फिर भगवान अपनी बात कहते हैं कि, ‘मुझे संसार से कुछ भी नहीं पाना, फिर भी मैं दक्षता से कर्म करता हूँ।’ क्योंकि :

क) “यदि मैं कर्म नहीं करूँगा तो लोग भी कर्म करना छोड़ देंगे।

ख) यदि मैं कर्म नहीं करूँगा तो लोग भी (अपने धर्म से) भ्रष्ट हो जायेंगे।

ग) यदि मैं कर्म न करूँ तो सब वर्ण संकर उत्पन्न हो जायेंगे।”

वर्ण संकर :

1. मिथ्या सिद्धान्तों का सहारा लेने वाले को वर्ण संकर कहा है।

2. सहज जीवन में जो कर्म करते हुए निरासक्त न रह सके, उसका ज्ञान निष्प्राण रह जायेगा। ऐसे लोगों का मिश्रित ज्ञान, वर्ण संकर ही है।

3. इस कारण ही इन लोगों के मन में भ्रान्ति जनक ज्ञान उत्पन्न हो जायेगा।

4. इनमें दैवी सम्पदा भी लुप्त हो जायेगी।

5. ऐसे ‘ज्ञानी’ अपने को श्रेष्ठ समझ बैठेंगे और अभिमान वर्जन की जगह पर अभिमान वर्धन हो जायेगा।

6. यज्ञमय जीवन की जगह पर उनका यज्ञ भ्रष्ट हो जायेगा।

7. पुण्यों की जगह वहाँ पर पाप होने लग जायेंगे।

8. लोग साधुता का सहारा लेकर, असाधुता का प्रचार करेंगे।

9. नन्हीं! क्षमा, दया, करुणा, प्रेम, आर्जवता, सब लुप्त हो जायेंगे।

10. तब ज्ञान और विज्ञान का समन्वय किसी को समझ नहीं आयेगा।

11. तब मन्दिर की बातों और जीवन की बातों में भेद हो जायेगा।

12. अध्यात्म, जो जीवन की सर्वोच्च विधि है, वह भी भ्रष्ट हो जायेगी।

फिर, ऐसी भ्रष्ट बुद्धि वाले साधु गण जब जग में जायेंगे, तो :

क) भोली भाली दुनिया को सत् के बहाने असत् की ओर ले जायेंगे।

ख) भोली भाली दुनिया को ज्योति से अंधकार की ओर ले जायेंगे।

ग) इन्हें देख कर लोग धर्म को ठुकरायेंगे।

घ) ऐसे लोगों से ज्ञान पाकर लोग कर्तव्य से विमुख हो जायेंगे।

नन्हीं जान्! इसे समझ ले! ज्ञान के वर्ण संकर वही होते हैं :

1. जो लोग ज्ञान को सहज जीवन से अलग कर देते हैं।

2. जो भगवान जैसा बनना नहीं चाहते, किन्तु भागवत् नाम का प्रचार करते हैं।

3. जो स्वयं यज्ञमय जीवन व्यतीत नहीं करते और लोगों को भी कर्तव्य से दूर करते हैं।

4. जो स्वयं सहज जीवन से भाग जाते हैं और दूसरे को भी भाग जाने की अनुमति देते हैं।

यहाँ भगवान स्वयं यही कह रहे हैं कि, ‘यदि मैं कर्म नहीं करूँगा, तो लोग भ्रष्टाचारी हो जायेंगे और जग में प्रेम, करुणा, दया का प्रमाण देने वाले जग को छोड़कर चले जायेंगे। तब जग का इन गुणों पर से विश्वास भी उठ जायेगा। तब सारी प्रजा स्वार्थी, निष्ठुर, अत्याचारी तथा अन्य आसुरी गुणों वाली हो जायेगी तथा मैं प्रजा की तबाही का कारण बनूँगा।’

क्यों न आज भगवान से कहें कि, ‘हे भगवान! तेरे ही भक्तों ने तुम्हारी बात न मान कर, वह किया जिसे तूने कहा भी कि नहीं करना चाहिये।’

नन्हीं! आज जो देश की हालत है, उसके ज़िम्मेदार बहुत हद तक :

1. भगवान का नाम लेने वाले लोग हैं।

2. भगवान का प्रचार करने वाले लोग हैं।

3. भगवान के नाम पर लोगों से धन लूटने वाले लोग हैं।

4. भगवान के नाम पर लोगों को कर्तव्य से पलायन कराने वाले धर्म प्रचारक हैं।

क) जहान में ज्ञान तो बहुत है किन्तु ज्ञान का रूप कहीं नहीं मिलता।

ख) जहान में स्वरूप की बातें तो बहुत लोग करते हैं, किन्तु ज्ञान के विज्ञानमय रूप के दर्शन कहीं नहीं मिलते।

नन्हीं! जो बात भगवान ने यहाँ कही, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसी में साधना का वास्तविक सार निहित है। इसी में भगवान का तत्व निहित है। इसी में आज की समस्याओं का कारण छिपा है और इसी में आज की समस्याओं से निकलने की राह भी निहित है।

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