अध्याय ३
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण:।।८।।
अब भगवान अर्जुन से कहते हैं कि:
शब्दार्थ :
१. तू नियत कर्म कर!
२. क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है
३. और कर्म न करने से तो तेरी शरीर यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी।
तत्व विस्तार :
क) शास्त्र विहित कर्म करो, यह अति आवश्यक है।
ख) आत्मवान् बनने के लिये वह कर्म करो जो योग के वर्धक हैं।
ग) मोह त्यागने के लिये कर्म करो और अपना तन औरों को दे दो।
घ) समत्व पाने के लिये कर्म करो, तब ही जय पराजय के प्रति निरपेक्षता का भाव होगा।
ङ) योग स्थिति के लिये कर्म करो। बिना अपना तन दिये योग सफल नहीं हो सकता।
च) भक्ति भी महा कर्म ही होता है। भगवान को साक्षी बना कर भागवत् कर्म करो।
छ) गर तेरी जगह भगवान होते, जो वह करते तुम वही करो।
ज) सत् स्थिति कर्म राही होती है, जीवन में सद्गुण का अभ्यास करो।
झ) स्वरूप कर्म में ही निहित होता है।
आत्मवान् का जीवन ही प्रमाण है। इस कारण, कर्म न करने से कर्म करना बहुत श्रेष्ठ है। फिर तनो यात्रा भी कर्मों के बिना नहीं हो सकती। कर्म तो करने ही होंगे।
1. सत्मय कर्म करो या असत्मय, कर्म तो करने ही हैं।
2. जीवन में जीना ही होगा, तुम सत् में जीने के यत्न करो।
3. निष्काम भाव से जीना सीखो।
4. संग, मोह त्याग कर जीयो।
5. परम में चित्त धर कर जीयो।
6. सत् परायण होकर जीयो।
देख नन्हीं! अब भगवान ने स्पष्ट ही कह दिया कि अकर्म से कर्म श्रेष्ठ हैं; किन्तु ये कर्म बुद्धि के अधीन होने चाहियें। भावना से कर्तव्य श्रेष्ठ है। बैठे बैठे बातें बनाने से स्थिति नहीं हो जाती। जो भी ज्ञान आपकी बुद्धि समझी है, उसे आप ही के जीवन में सप्राण होना है। आपको स्वयं ज्ञान की प्रतिमा बनना है। आपको ज्ञान के हर वाक् को अपने जीवन में धरना ही होगा; वरना ज्ञान निस्तेज तथा निष्प्राण रह जायेगा। गर आपने उसमें जीवन का रस नहीं भरा तो वह शुष्क रह जायेगा।
ज्ञान और जीवन का संयोग ज़रूरी है। ज्ञान और कर्म की एकरूपता ज़रूरी है। ज्ञान जीवन में बह ही जायेगा, यदि आपकी राहों में आपका ही मन न आये। तब आप स्थितप्रज्ञ, आत्मवान् बन ही जायेंगे।